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उवक्कमाणुयोगद्दारे अणुभागउदीरणा
(१८५ मणुस-तिरिक्खाउआणं जहणिया उदीरणा कस्स ? जहणियासु अपज्जत्तणिवत्तीसु उववण्णस्स पढमे अपढमे वा चरिमे अचरिमे वा समए वट्टमाणस्स मणुस-तिरिक्खस्स। देवाउअस्स जहणिया उदीरणा कस्स ? दसवस्ससहस्सियाए ट्ठिदीए उववण्णस्स पढमसमयदेवस्स वा चरिमसमयस्स वा तव्वदिरित्तस्स वा ।
णिरयगइणामाए जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? णेरइयस्स अण्णदरिस्से पुढवीए वट्टमाणस्स पज्जत्तस्स अपज्जत्तस्स वा मज्झिमपरिणामस्स । तिरिक्खगदिणामाए जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स? एइंदिय-बीइंदिय-तेइंदिय-चरिदिय-पंचिदिएसु अण्णदरस्स पज्जत्तस्स अपज्जत्तस्स वा तिपलिदोवमट्ठिदियस्स अण्णदरस्स वा। मणुसगदिणामाए जहणिया उदीरणा कस्स ? अण्णदरस्स संखेज्जवासाउअस्स असंखेज्जवासाउअस्स पज्जत्तस्स वा मणुस्सस्स मज्झिमपरिणामस्स । देवगदिणामाए जहणिया उदीरणा कस्स ? अण्णदरस्स कप्पोपपादियस्स वा अणुत्तरोपपादियस्स वा देवस्स मज्झिमपरिणामस्स । पंचण्णं जादिणामाणं जहण्णाणुभागउदीरणा कस्स ? अण्णदरस्स पयडिवेदयस्स ।
है। मनुष्यायु और तिर्यंच आयुकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्तियोंमें उत्पन्न और प्रथम-अप्रथम अथवा चरम-अचरम समयमें वर्तमान मनुष्य और तिर्यंचके होती है। देवायुकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह दस हजार वर्षकी आयुस्थितिके साथ उत्पन्न हुए देवके उत्पन्न होनेके प्रथम समययें, चरम समयमें अथवा उनसे भिन्न कसी भी समयमे स्थित रहनेपर होती है ।
नरकगति नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह अन्यतर पृथिवीमें वर्तमान मध्यम परिणामवाले पर्याप्त अथवा अपर्याप्त नारकीके होती है। तिर्यंचगति नामकर्मकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंमें अन्यतर पर्याप्त अथवा अपर्याप्तके तीन पल्योपम प्रमाण स्थितिसे अथवा अन्यतर आयुस्थिति युक्त होते हुए होती है। मनुष्यगति नामकर्मकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह अन्यतर संख्यातवर्षायुष्क अथवा असंख्यातवर्षायुष्क पर्याप्त अथवा अपर्याप्त मध्यम परिणामवाले मनुष्यके होती है। देवगति नामकर्मकी जघन्य उदीरणा किसके होती है ? वह अन्यतर कल्पोपपादिक अथवा अनुत्तरोपपादिक मध्यम परिणामवाले देवके होती है। पांच जातिनामकर्मोंकी जघन्य अनुभागउदीरणा किसके होती है ? वह उस उस प्रकृतिके वेदक अन्यतर जीवके होती है।
+ आऊण जहन्नगठिईसु ।। क.प्र. ४, ७२. तया चतुर्णामायुषामात्मीयात्मीयजघन्ययस्थितौ वर्तमानो जघन्यमनुभागम दीरयति । तत्र त्राणामायुषां संक्लेशादेव जयन्यस्थितिबन्धो भवतीति कृत्वा जघन्यानभागोर तत्रैव लभ्यते तथा नारकायुषो विशुद्धवशाज्जघन्यः स्थितिबन्धः, ततो जघन्यानभागोऽपि नारकायषस्तत्रैव लभ्यते । तथा च सति त्रयाणामायषामतिसंक्लिष्टो जघन्यान भागोदीरकः नारकायषस्त्वतिविशुद्ध इति । ( म. टीका).
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