Book Title: Shatkhandagama Pustak 15
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 326
________________ उदयानुयोगद्दारे एगजीवेण अंतरं ( २९१ जीवेण कालो । तं जहा जहा उक्कस्सट्ठिदिउदीरणाकालो परूविदो तहा उक्कस्सट्ठिदिउदयकालो वि परूवेयव्वो । जहण्णट्ठिदिउदओ । तं जहा - णामा- गोदवेदणिज्जाणं जहणट्ठिदिउदओ ! केवचिरं० ? जहण्णुक्क अंतोमुहुत्तं । नवरि वेयणीय० जह० एयसमओ, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । आउअस्स जह० ट्ठिदिउदओ केव० ? जह० एगावलिया, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । चदुष्णं पि घाइकम्माण जह० केवचिरं० ? जहण्णुक्क० आवलिया । सत्तण्णं कम्माणमजहण्णट्ठिदिउदयकालो अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो । मोहणीयं वेयणीयं च पडुच्च सादिओ सपज्जवसिदो । तस्स जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० उबड्ढपोग्गलपरियहं । आउअस्स अजहण्णट्ठिदिवेदयकालो जह० अंतमुत्तमेगसमओवा, उक्क० तेत्तीससागरोवमाणि आवलियूणाणि । जीवेण अंतरं । जहा - जहाQ उक्कस्सट्ठिदिउदीरयंतरं परूवियं तहा उक्कस्सट्ठिदिवेदयंतरं परूवेयव्वं । आउअस्स जहण्णद्विदिवेदयंतरं जह० खुद्दाभवग्गहणं आवलियूणं एगसमओ वा, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि आवलियूणाणि । पंचग्ण कम्माणं जहण्णद्विदिवेदयंतरं णत्थि । मोहणीय-वेदणीयाणं जहण्णट्ठिदिवेदयंतरं जह० एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- जैसे उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा के कालकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही उत्कृष्ट स्थितिउदय के कालकी भी प्ररूपणा करना चाहिये । जघन्य स्थितिउदयकी प्ररूपणा की जाती है । यथा नाम, गोत्र और वेदनीयका जघन्य स्थितिउदय कितने काल रहता है ? वह जघन्य व उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त रहता है। विशेष इतना है कि वेदनीयके जघन्य स्थितिउदयका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि मात्र है । आयुकर्मका जघन्य स्थितिउदय कितने काल रहता है ? वह जघन्यसे एक आवली और उत्कर्ष से कुछ कम पूर्वकोटि मात्र रहता है। चारों ही घातिया कर्मोंका जघन्य स्थितिउदय कितने काल रहता है ? वह जघन्य व उत्कर्ष से एक आवली मात्र रहता है। सात कर्मोंके अजघन्य स्थितिउदयका काल अनादि अपर्यवसित व अनादि सपर्यवसित है। मोहनीय व वेदनीयकी अपेक्षा वह सादि सपर्यवसित है । उसका जो सादि सपर्यवसित काल है उसका प्रमाण जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । आयुकी अजघन्य स्थितिका वेदककाल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त अथवा एक समय और उत्कर्ष से आवली कम तेतीस सागरोपम मात्र है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका कथन करते हैं। यथा- जिस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिउदीरकके अन्तरकी प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकार उत्कृष्ट स्थितिवेदककें अन्तरकी भी प्ररूपणा करना चाहिये | आयुकर्मके जघन्य स्थितिवेदकका अन्तर जघन्यसे आवली कम क्षुद्रभवग्रहण अथवा एक समय और उत्कर्षसे आवली कम तेतीस सागरोपम मात्र होता है। पांच कर्मोंके जघन्य स्थितिवेदकका अन्तर नहीं होता। मोहनीय और वेदनीयके जघन्य स्थितिवेदकका अंतर जघन्य प्रतिष -द्विदिउदीरओ' इति पाठ: । D प्रतिषु अणक्क इति पार: । 'आवलियाए', कापती' आवलिया इति पाठ: । सपज्जवसिदो इत्येतावान् पाठो नोपलभ्यते । T Jain Education International 2 7 " , * अप्रती 4 अ-काप्रत्योः तस्स जो सो सादिओ ) ताप्रती नोपलभ्यते पदमिदम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488