Book Title: Shatkhandagama Pustak 15
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 287
________________ २५२ ) छक्खंडागमे संतकम्म विहायगइ-तस-थावर--बादर-सुहुम--पज्जत्तापज्जत्त-थिर-सुभ-सुभग-दूभग-सुस्सरदुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-णीचुच्चागोदाणं जहण्णवड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणि तिणि वि तुल्लाणि । अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-फासअथिर-असुहणामाणं जहणिया हाणी थोवा । अवट्ठाणमणंतगुणं । वड्ढी अणंतगुणा । पंचण्णमंतराइयाणं जह० वड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणि सरिसाणि । एवं पदणिक्खेवो समत्तो। एत्तो वढिउदीरणा। तं जहा- मदिणाणावरणस्स अत्थि अणंतभागवड्ढिउदीरणा असंखेज्जभागवडिढउदीरणा संखेज्जभागवढिउदीरणा संखेज्जगुणवड्ढिउदीरणा असंखेज्जगुणवड्ढिउदीरणा अणंतगुणवड्ढिउदीरणा अणंतभागहाणिउदीरणा असंखेज्जभागहाणिउदीरणा संखेज्जभागहाणिउदीरणा संखेज्जगुणहाणिउदीरणा असंखेज्जगुणहाणिउदीरणा अणंतगुणहाणिउदीरणा अवट्टिदउदीरणा चेदि । एवं सव्वेसि कम्माणं तेरस पदाणि होति । अवत्तव्वउदीरणाए सह केसि चिo चोद्दस पदाणि । एवं समुक्कित्तणा समत्ता। एत्तो सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं अप्पाबहुए त्ति एदाणि अणुयोगद्दाराणि जहा अणुभागवड्ढिबंधे परूविदाणि तहा एत्थ परूवेयवाणि । पुणो अणुभागउदीरणट्ठाणपरूवणा जीवसमुदाहारो च परूवेयव्वो। एवमणुभागउदीरणा समत्ता। आनुपूर्वी नामकर्म, अगुरुलघु, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर' सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, शुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, नीच और ऊंच गोत्र; इनकी जघन्य हानि, वृद्धि और अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं । अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श, अस्थिर और अशुभ नामकर्मोकी जघन्य हानि स्तोक है । अवस्थान अनन्तगुणा है । वृद्धि अनन्तगुणी है। पांच अन्तराय कर्मोकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान सदृश हैं। इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ। इसके आगे वृद्धि-उदीरणाकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- मतिज्ञानावरणको अनन्तभागवृद्धिउदीरणा, असंख्यातभागवृद्धिउदीरणा, संख्यातभागवृद्धिउदीरणा, संख्यातगुणवृद्धि उदीरणा, असंख्यातगुणवृद्धि उदीरणा अनन्तगुणवृद्धि उदीरणा, अनन्तभागहानिउदी रणा, असंख्यातभागहानि उदीरणा, संख्यातभागहानिउदीरणा, संख्यातगुणहानिउदीरणा, असंख्यातगुणहानिउदीरणा, अनन्तगुणहानिउदौरणा और अवस्थित उदीरणा भी होती है। इस प्रकार सब कर्मोके ये तेरह पद होते हैं। किन्ही कर्मोंके अवक्तव्य उदीरणाके साथ चौदह पद भी होते हैं। इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई। यहां स्वामित्व, काल, अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय', काल, अन्तर और अल्पबहुत्व; इन अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा जिस प्रकार अनुभागवृद्धिबन्धमें की गयी है उसी प्रकारसे यहां भी प्ररूपणा करना चाहिये । तत्पश्चात् अनुभागउदीरणास्थानप्ररूपणा और जीवसमुदाहारकी प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार अनुभागउदीरणा समाप्त हुई। . अप्रगै 'केसि पि' इति पारः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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