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उवक्कमाणुयोगद्दारे पदेसउदीरणा सामित्तं दादव्वं । उच्च-णीचागोद-पंचंतराइयाणं जह० वड्ढी कस्स? जो उक्कस्ससंकिलेसादो दुचरिमसंकिलेसं गदो तस्स जह० वड्ढी । जह० हाणी कस्स ? जो दुचरिमसंकिलेसादो उक्कस्ससंकिलेसं गदो तस्स जह० हाणी । एगदरत्थमवट्ठाणं । एवं जहण्णसामित्तं समत्तं ।
अप्पाबहुअं । तं जहा- मदिआवरणस्स उक्कस्सिया हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि थोवाणि । उक्क० वड्ढी असंखेज्जगुणा। सुद-मणपज्जव-ओहि-केवलणाणावरण-चक्खुअचक्खु-ओहि-केवलदसणावरण-सम्मत्त-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-सोलसकसाय-हस्सरदि-भय-दुगुंछा-पुरिसवेद-पंचिंदियजादि-तेजा--कम्मइयसरीर-तब्बंधण-संघाद-समचउरससंठाण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-आदेज्ज-जसगित्ति-णिमिणच्चागोद-पंचंतराइयाणं पदेसउदीरणाए उक्कस्सिया हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि थोवाणि । उक्कस्सिया वड्ढी असंखे०गुणा । असादस्स उक्क०हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि थोवाणि। वड्ढी असंखे०गुणा। दंसणावरणपंचयस्स उक्क० वड्ढी थोवा। हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि। सादस्सहाणी-अवट्ठाणाणि थोवा।वड्ढीअसंखे०गुणा । इत्थि-णqसयवेद
सम्भावना युक्त ऐसे उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट संक्लेशवाले जीवोंमें उनके जघन्य स्वामित्वको देना चाहिये। उच्च व नीच गोत्र तथा पांच अन्तराय प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है? जो उत्कृष्ट संक्लेशसे द्विचरम संक्लेशको प्राप्त होता है उसके उनकी जघन्य वृद्धि होती है। उनकी जघन्य हानि किसके होती है ? जो द्विचरम संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होता है उसके उनकी जघन्य हानि होती है। दोनोंमें से किसी एकमें उनका जघन्य अवस्थान होता है। इस प्रकार जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ।
अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- मतिज्ञानावरणकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं। उसकी उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणी है । श्रुतज्ञानावरण, मन.पर्ययज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर तथा उनके बंधन और संघात, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय; इनकी प्रदेशउदीरणाकी उत्कृष्ट हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य एवं स्तोक हैं। उनकी उत्कृष्ट वृद्धि उससे असंख्यातगुणी है । असातावेदनीयकी उत्कृष्ट हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं । उससे उसकी वृद्धि असंख्यातगुणी है। निद्रादिक पांच दर्शनावरण प्रकृतिको उत्कृष्ट वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान दोनों ही तुल्य व विशेष अधिक हैं। सातावेदनीयकी हानि व अवस्थान दोनों स्तोक हैं । वृद्धि असंख्यातगुणी है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद,
* ताप्रतौ -सरीर-बंधण' इति पाठः । Jain Education International
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