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आ. मी. १०.
पक्कमाणुयोगद्दारे भावेयंतरासो
कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य नि नवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ।। १२ ।। सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे । अन्यत्रसमवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ॥ ३१ ॥
( बुद्धि ), अहंकार, ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय ( वाक् पाणि, पाद, पायु व उपस्थ), मन, पांच तन्मात्र ( गन्ध, रस, रूप, स्पर्श व शब्द ) और पांच भूत ( पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश ) । इनमें प्रकृति कर्त्री और पुरुष भोक्ता है । प्रकृतिसे महान् महान्से अहंकार, अहंकारसे ग्यारह इन्द्रियां व पांच तन्मात्र, तथा पांच तन्मात्रोंसे पांच भूतोंका आविर्भाव और इसके विपरीत क्रमसे उन सबका तिरोभाव ( जैसे पृथिव्यादि पांच भूतोंका तिरोभाव गन्धादि पांच तन्मात्रों में ) होता है । इस प्रकार सांख्यमतमें सब कार्य सत् ही हैं । उनके इस एक पक्षको दूषित करते हुए उपर्युक्त कारिकामें कहा गया है कि सब पदार्थोंको सर्वथा सत् माननेपर अन्योन्याभाव, प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव और अत्यन्ताभाव, ये चारों ही अभाव नहीं बन सकेंगें । इनमें से महान् व अहंकारादिमें प्रकृतिका तथा प्रकृतिमें महदादिका अन्योन्याभाव न रहने से महदादिक प्रकृतिस्वरूप व प्रकृति महदादिस्वरूप भी हो सकती है । इस प्रकार अन्योन्याभावके अभाव में सबके सब स्वरूप हो जानेका प्रसंग अनिवार्य होगा । इसी प्रकार प्रागभाव ( कार्योत्पत्ति के पूर्व में उसका अभाव । के न रह सकनेसे महदादिके अनादिताका तथा प्रध्वंसाभाव ( विनाश) के न रहनेसे उनके अनन्तताका प्रसंग भी दुर्निवार होगा । साथ ही प्रकृति में भोक्तृत्वका तथा पुरुषमें कर्तृत्वका अत्यन्ताभाव न रहनेपर प्रकृति व पुरुषका कोई निश्चित लक्षण भी नहीं बन सकेगा, अतः निःस्वरूपताका प्रसंग भी कैसे टाला जा सकेगा ? इसीलिये उक्त एकान्त पक्ष ग्राह्य नहीं हो सकता ।
प्रागभावका अपलाप होनेपर कार्यरूप द्रव्यके अनादि हो जानेका प्रसंग आता है । तथा प्रध्वंसरूप धर्मका ( प्रध्वंसाभावका ) अभाव होनेपर वह अनन्तता ( अविनश्वरता ) को प्राप्त हो जावेगा ।। १२ ।।
विशेषार्थ --- कार्यके उत्पन्न होनेके पूर्व में जो उसकी अविद्यमानता है उसे प्रागभाव कहा जाता है । इसको न माननेपर घटपटादि कार्य अपने स्वरूपलाभ ( उत्पत्ति ) के पूर्व में भी विद्यमान ही रहना चाहिये । इस प्रकार प्रागभावके अभाव में घटादि कार्योंके अनादि हो जानेका अनिष्ट प्रसंग आता है । कार्य के विनाशका नाम प्रध्वंसाभाव है । इसे स्वीकार न करनेपर चूंकि घटादि कार्योंका उत्पन्न होने के पश्चात् कभी विनाश तो होगा ही नहीं, अत एव उनके अनन्त ( अन्त रहित ) हो जानेका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, घटादि पर्यायविशेषोंका अपनी उत्पत्ति के पूर्व में और विनाशके पश्चात् उन उन आकारविशेषोंमें अवस्थान देखा नहीं जाता। अत एव यह स्वीकार करना चाहिये कि पदार्थ सर्वथा भाव ( अस्तित्व ) स्वरूप नहीं है, किन्तु अपने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वे कथंचित् भावस्वरूप तथा दूसरे पदार्थोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा कथंचित् अभावस्वरूप भी हैं । अन्यापोह ( अन्योन्याभाव ) का उल्लंघन होनेपर विवक्षित कोई एक तत्त्व सब तत्त्वों
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आ. मी. ११.
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