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छक्खंडागमे संतकम्मं
।। १४ ।।
अभावैकान्तपक्षेऽपि भावापहन्ववादिनाम् । बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधन- दूषणम् विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते, ॥ १५ ॥
स्वरूप हो जावेगा । अन्यत्रसमवाय, अर्थात् ज्ञानादि गुणविशेषोंका अपने समवायी ( आत्मादि) के अतिरिक्त दूसरे समवायीमें समवाय होनेपर अर्थात् अत्यन्ताभाव के अभाव में अभीष्ट स्वरूपसे किसी भी तत्त्वका निर्देश नहीं किया जा सकेगा ।। १३ ।।
विशेषार्थ -- विवक्षित स्वभावकी दूसरे स्वभावोंसे रहनेवाली भिन्नताका नाम अन्योन्याभाव है, जैसे गायरूप स्वभाव । पर्याय ) की अश्वादि स्वभावोंसे रहनेवाली भिन्नता । इस अन्योन्याभावको न माननेपर गाय अश्वस्वरूप और अश्व गायस्वरूप भी हो सकता है । इस प्रकार द्रव्यकी सब पर्यायें सभी पर्यायों स्वरूप हो सकती हैं । इससे लोकव्यवहारका विरोध होगा । अत एव द्रव्यकी विभिन्न पर्यायोंमें परस्पर भेदको प्रगट करनेवाले अन्योन्याभावको स्वीकार करना ही चाहिये । एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्यसम्बन्धी असाधारण गुणोंके कालिक अभावको अत्यन्ताभाव कहा जाता है, जैसे पुद्गल द्रव्य में चैतन्य गुणका अभाव और जीव द्रव्यमें रहनेवाला रूपादि गुणों का अभाव। इस अत्यन्ताभावको स्वीकार न करनेसे एक द्रव्य गुणोंका दूसरे द्रव्यमें समवाय सम्भव होनेपर दूसरोंके द्वारा कल्पित प्रकृति-पुरुषादिरूप तत्त्वोंका नियमित स्वरूप नहीं बन सकेगा । अत एव तत्त्वव्यवस्थाको स्थिर रखनेके लिये अत्यन्ताभावका भी अपलाप नहीं किया जा सकता है ।
'कोई भी पदार्थ सत्स्वरूप नहीं है' इस प्रकारसे सर्वथा अभाव पक्षको स्वीकार करनेपर भी सत्स्वरूपताका अपलाप करनेवाले शून्यैकान्तवादियों ( माध्यमिक ) के यहां बोधरूप स्वार्थानुमान और वाक्यरूप पदार्थानुमान प्रमाणका भी सद्भाव नहीं रह सकेगा । ऐसी अवस्था में शून्यता रूप स्वपक्षकी सिद्धि किस प्रमाणसे की जावेगी, तथा सत्स्वरूप पदार्थको स्वीकार करनेवाले अन्य वादियोंके पक्षको दूषित भी किस प्रमाणके द्वारा किया जावेगा ? ॥ १४ ॥
विशेषार्थ —— ' पदार्थोंकी जिस स्वरूपसे प्ररूपणा की जाती है वह उनका स्वरूप वास्तव में ह नहीं, क्योंकि, पदार्थोंके एकानेकरूपता बनती नहीं है । अत एव बाह्य या आभ्यन्तर कोई भी पदार्थ सत्स्वरूप नहीं है ।' यह शून्यैकान्तवादी माध्यमिकोंका अभिमत है । इस एकान्त पक्षको असंगत बतलाते हुए यहां कहा गया है कि जो वादी शून्यमय जगत्को स्वीकार करते हैं उनके यहां सत् स्वरूप किसी भी पदार्थके न रहनेसे अपने अभीष्ट ( शून्यता ) पक्ष के साधक और परपक्ष ( सत्स्वरूपता ) को दूषित करनेवाले अनुमानादि प्रमाणकी भी सत्ता सम्भव नहीं है । और ऐसा होनेपर प्रमाणके अभाव में उनका अभीष्ट तत्त्व भी सिद्ध नहीं हो सकता । इसलिये यदि स्वपक्षको सिद्ध करनेके लिये किसी प्रमाणविशेषकी सत्ता स्वीकार की जाती है। तो उसके सद्भावमें ‘सर्वथा शून्यमय जगत् है वह उनका एकान्त पक्ष नहीं रहता ।
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' पदार्थ सत् व असत् स्वरूप हैं' इस प्रकार अनेकान्तविरोधियों के यहां उभयस्वरूपताका भी एकान्त पक्ष नहीं बनता, क्योंकि, उसमें विरोध है । तथा 'पदार्थ सर्वथा वचनके अगोचर
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आ. मी. १३.
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