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उवक्कमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिउदीरणा
( १०९ वत्तव्वं । एवमुज्जोवणामाए। णवरि उत्तरविउव्विददेवस्स। आदावस्स देवपच्छायदपुढविकाइयस्स सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स तप्पाओग्गमुक्कस्सद्विदिमुदीरेमाणस्स। पसत्थापसत्थविहायगइणामाए उस्सासभंगो । णवरि एदासि पयडीणं जो वेदओ तत्थ वत्तव्वं ।
तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरणामाणं जहा धुवउदोरणापयडीणं परूविदं तहापरूवेयव्वं । थावरणामाए उकस्सट्टिदिउदीरणा कस्स होदि ? जो देवो उक्कस्सियं ट्ठिदि बंधिदूण मदो एइंदिएसु उववण्णो तस्स जाव आवलियतब्भवत्थो ति ताव उक्कस्सट्ठिदिउदीरणा । सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीरणामाणं उक्कस्सटिदिमुदीरओ को होदि ? जो वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बंधिदण पडिभग्गो संतो अप्पिदपयडीओ बंधिय उक्कस्सियं पडिच्छिय अंतोमहत्तमच्छिय सव्वलहुं सुहम-अपज्जत्त-साहारणसरीरेसुप्पण्णपढमसमयतब्भवत्थो उक्कस्सट्टिदिउदीरगो । एवं बेइंदिय-तेइंदियचरिदियणामाणं पि वत्तन्वं । बाद उसकी-उदीरणा करता है, ऐसा कहना चाहिये । इसी प्रकारसे उद्योत नामकर्म सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाकी प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि उसकी उदीरणा उत्तर विक्रियायुक्त देवके होती है । आतप नामकर्म सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा देव पर्यायसे पीछे आये हुए पृथिवीकायिक जीवके शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करते समय होती है। प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति नामकर्मोकी प्ररूपणा उच्छ्वास नामकर्मके समान है। विशेषता इतनी है कि इन प्रकृतियोंका जो जीव वेदक है उसके कहना चाहिये।
त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीर नामको सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा जैसे ध्रुव-उदीरणावाली प्रकृतियोंकी की गई है वैसे करना चाहिये । स्थावर नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा किसके होती है ? जो देव उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर मरणको प्राप्त हो एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ है उसके आवली मात्र कालवर्ती तद्भवस्थ रहने तक उसकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा होती है । सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर नामकर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक कौन होता है ? जो जीव बीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण स्थितिको बांधकर प्रतिभग्न होता हुआ विविक्षित प्रकृतियोंको बांधकर उत्कृष्ट स्थितिको संक्रान्त कर अन्तर्मुहूर्त स्थित रहकर सर्वलघु कालमें सूक्ष्म अपर्याप्त साधारणशरीरवालोंमें उत्पन्न होकर प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ हुआ है वह उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । इसी प्रकारसे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय नामकर्मोकी भी उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणाकी प्ररूपणा करना चाहिये।
एवमातपादीनामप्यन्तर्मुहूर्तोना उत्कृष्टा स्थितिरुदीरणा भावनीया । नन्वृदयसंक्रमोत्कृष्टस्थितीनां प्रकृतीनामन्तमुहूर्तोना उत्कृष्ट स्थितिरुदीरणायोग्या भवतु, आतपनाम तू बन्धोत्कृष्टम, ततस्तस्य बन्धोदयावलिका द्विकरहितवोत्कृष्टा स्थितिरुदीरणाप्रायोग्या प्राप्नोति, कथमच्यतेऽन्त महर्मोनेति ? उच्यते-इह देव एवोत्कृष्टे संक्लेशे वर्तमान एकेन्द्रियप्रायोग्याणामातप-स्थावरैकेन्द्रियजानीनामत्कष्टा स्थिति बध्नाति, नान्यः । स च तां वध्वा तत्रव देवभवेऽन्तमहत कालं यावदवतिष्ठते । ततः कालं कृत्वा बादरपृथिवीकायिकेषु मध्य समुत्पद्यते। समुत्पन्नः सन् शरीरपर्याप्त्या पर्याप्त आतपनामोदये वर्तमानस्तदुदीरयति । तत एवं सति तस्यान्तमहर्लोनवोत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या भवति (मलय. टीका)। कापतौ 'उक्कस्सभंगो' इति पाठः ।
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