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छवखंडागमे संतकम्मं
इदि के विभति । एदं पि ण जुज्जदे । कुदो ? एयंतेण संते कत्तारवावारस्स विहलत्तप्पसंगादो, उवायाणग्गहणाणुववत्तीदो, सव्वहा संतस्स संभवविरोहादो, सव्वहा
विशेषार्थ -- सांख्यमतमें प्रधानकी सिद्धिमें उपयोगी होनेसे सत्कार्यवादको स्वीकार किया गया है | कार्यको सत् सिद्ध करनेके लिये उपर्युक्त कारिकामें निम्न हेतु दिये गये हैं-( १ यदि कारणव्यापारके पूर्व में कार्यको सत् ही स्वीकार किया जाय तो उसका उत्पन्न होना शक्य नहीं है, जैसे खरविषाण । अत एव कारणव्यापारके पूर्व में भी कार्यको सत् ही स्वीकार करना चाहिये । कारणके द्वारा केवल उसकी अभिव्यक्ति की जाती है जो उचित ही है । जैसे तिलोंमें तैल जब पहिले से ही सत् है तभी वह कोल्हू आदिके द्वारा निकाला जा सकता है, वालुकामेंसे तैलका निकाला जाना किसी प्रकार भी शक्य नहीं है । ( दूसरा हेतु 'उपादानग्रहण' दिया गया है -- उपादानग्रहणका अर्थ है कारणोंसे कार्यका सम्बन्ध | अर्थात् कारण कार्य से सम्बद्ध हो करके ही उसका उत्पादक हो सकता है, न कि असम्बद्ध रह कर | और वह सम्बद्ध चूंकि असत् कार्यके साथ सम्भव नहीं है, अतएव कारणव्यापारसे पूर्व में भी कार्यको सत् ही स्वीकार करना चाहिये । ( ३ ) यदि कहा जाय कि कारण असम्बद्ध ही कार्यको उत्पन्न कर सकते हैं, अतः इसके लिये कार्यको सत् मानना आवश्यक नहीं है; सो यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि, वैसा माननेपर जिस प्रकार मिट्टी के द्वारा अपनेसे असम्बद्ध घट कार्य किया जाता है उसी प्रकार असम्बद्धत्वकी समानता होनेसे घटके समान पट आदिक कार्य भी उसके द्वारा उत्पन्न किये जा सकते हैं । इस प्रकार एक ही किसी कारणसे सब कार्यों के उत्पन्न होने का प्रसंग अनिवार्य होगा । परन्तु ऐसा चूंकि सम्भव नहीं है, अतएव यह स्वीकार करना चाहिये कि सम्बद्ध कारण सम्बद्ध कार्यको ही उत्पन्न करता है, न कि असम्बद्धको । इस प्रकार यह तीसरा हेतु देकर सत्कार्य सिद्ध किया गया है। ) यहां शंका की जा सकती है कि असम्बद्ध रहकर भी वही कार्य उत्पन्न किया जा सकता है जिसके उत्पन्न करने में कारण समर्थ है । इसीलिये सर्वसम्भवका प्रसंग देना उचित नहीं है । इसके उत्तर में 'शक्तस्य शक्यकरणात्' यह चतुर्थ हेतु दिया गया है । उसका अभिप्राय है कि शक्त कारण शक्य कार्यको ही करता है। यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि कारणमें रहनेवाली वह कार्योत्पादनरूप शक्ति क्या समस्त कार्यविषयक है या शक्य कार्यविषयक ही है ? यदि उक्त शक्ति समस्त कार्यविषयक स्वीकार की जाती है तो सबसे सभीके उत्पन्न होनेका जो प्रसंग दिया गया है वह तदवस्थ ही रहेगा । इसलिये यदि उक्त शक्तिको शक्य कार्यविषयक ही स्वीकार किया जाय तो फिर स्वयमेव सत् कार्य सिद्ध हो जाता है, क्योंकि, अविद्यमान शक्य कार्य में तद्विषयक शक्तिकी सम्भावना ही नहीं रहती । अतएव कार्य सत् ही है । ( ५ ) सत् कार्यको सिद्ध करनेके लिये अन्तिम हेतु 'कारणभाव दिया गया है । उसका अभिप्राय यह है कि. कार्य चूंकि कारणात्मक है, अतएव जब कारण सत् है तो उससे अभिन्न कार्य कैसे असत् हो सकता है ? नहीं हो सकता । अतः कार्य कारणव्यापारके पूर्व भी सत् ही रहता है । यह सांख्योंका अभिमत है । आगे वीरसेन स्वामी स्वयं इस अभिप्रायका निरास करनेवाले हैं ।
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समाधान -- इस प्रकार किन्ही कपिल आदिका कहना है जो योग्य नहीं है। कारण कि कार्यको सर्वथा सत् माननेपर कर्ताके व्यापारके निष्फल होनेका प्रसंग आता है । इसी प्रकार सर्वथा कार्यके सत् होनेपर उपादानका ग्रहण भी नहीं बनता, सर्वथा सत् कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है,
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