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छक्खंडागमे संतकम्म
मावण्णाणं पदुप्पायणसद्दाभावादो वा । कुदो जच्चंतरत्तं ? संजोग-समवाएहि विणा अण्णोण्णाणुगयत्तादो। को संजोगो ? पुधप्पसिद्धाणं मेलणं संजोगो । को समवाओ? एगत्तेण अजुवसिद्धाणं मेलणं । ण विहिप्पडिसेहाणं संजोगो, पुधप्पसिद्धीए अभावादो। ण समवाओ वि, सामण्णसरूवेण सव्वकालमण्णोण्णाजहावुत्तीए द्विदाण संबंधाणुववत्तीदो। ण च एयंतेण दुविहसंबंधाभावो, विहि-प्पडिसेहविसेसं पडुच्च तदुभयसंबंधुवलंभादो। ण च विहि-प्पडिसेहाणं पुधभावो णत्थि, भिण्णपच्चयगेज्झतेण पुधभूददव्वावट्ठाणेण च तदुवलंभादो। तदो सिद्धं जच्चंतरत्तं ।
सिया संतमसंतं च उप्पज्जदि णेगमणयावलंबणेण । को णेगमो? यदस्ति न तद्वयमतिलंध्य वर्तत इति नैकगमो नैगमः। सिया संतं च अवत्तव्वं च अवत्तव्वेण सह विहिधम्मप्पणाए। एवं णेगमणयमस्सिदूण द्विदसेसभंगाणं पि अत्थो वत्तव्यो । ण च
शंका-- जात्यन्तरता क्यों है ?
समाधान-- कारण कि वे विधि-प्रतिषेध धर्म संयोग व समवायके विना परस्परमें अनुगत हैं।
शंका-- संयोग किसे कहते हैं ? समाधान-- पृथक् प्रसिद्ध पदार्थों में मेलको संयोग कहते हैं। शंका-- समवाय किसे कहते हैं ? समाधान-- अयुतसिद्ध पदार्थोंका एक रूपसे मिलनेका नाम समवाय है ।
विधि और प्रतिषेध धर्मोंका संयोग तो संभव नहीं है, क्योंकि, उनमें पृथसिद्धत्वका अभाव है। समवायकी भी सम्भावना नहीं हैं, क्योंकि, सामान्य स्वरूपसे सब कालमें परस्पर अजहत् वृत्तिसे स्थित उक्त दोनों धर्मोका सम्बन्ध नहीं बन सकता। और एकान्ततः इन दो प्रकारके सम्बन्धोंका अभाव हो, ऐसा भी नहीं है; क्योंकि, विधि-प्रतिषेधविशेषकी अपेक्षा वे दोनों सम्बन्ध पाये जाते हैं। विधि व प्रतिषेध धर्मोके भिन्नता नहीं हो, यह भी बात नहीं है, क्योंकि, भिन्न प्रत्यय द्वारा ग्राह्य होनेसे तथा पृथग्भूत द्रव्योंमें रहनेसे उनमे भिन्नता पायी जाती है। इसलिये उनमें जात्यन्तरत्व सिद्ध है।
नैगम नयकी अपेक्षा कथंचित् सत् व असत् कार्य उत्पन्न होता है। शंका- नैगम नय किसे कहते हैं ?
समाधान-- 'जो विद्यमान है वह भेद व अभेद इन दोनोंका उल्लंघन करके नहीं रहता' इस कारण जो उन दोनोंमेंसे किसी एकको विषय न करके विवक्षाभेदसे दोनोंको ही विषय करता है वह नैगम नय कहा जाता है ।
अवक्तव्यके साथ विधि धर्मकी प्रधानतासे कार्य कथंचित् सत् व अवक्तव्य उत्पन्न होता है। इसी प्रकार नैगम नयका आश्रय करके स्थित शेष भंगोंके भी अर्थका कथन करना चाहिये ।
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४ ताप्रती 'विहिपडिसेहणं ' इति पाठः । * काप्रती 'विविह' इति पाठ:। Jain Education International
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