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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका में रायबहादुर सेठ लालचन्दजी के यहां रहते हुए ही कार्य करते रहे। किन्तु गत जनवरी से वे यहां बुला लिये गये और तब से वे इस कार्य में मेरी सहायता कर रहे हैं। उसी समय से बीना निवासी पं. फूलचन्द जी सिद्धांतशास्त्री की भी नियुक्ति कर ली गई है
और वे भी अब इसी कार्य में मेरे साथ तत्परता से संलग्न हैं। तथा व्यक्तिगत रूप से यथावसर अन्य विद्धानों का भी परामर्श लेते रहे हैं।
प्राकृतपाठ संशोधन सम्बन्धी नियम हमने प्रेस कापी के दो सौ पृष्ठ राजाराम कालेज कोल्हापुर के अर्धमागधी के प्रोफेसर, हमारे सहयोगी व अनेक प्राकृत ग्रंथों का अत्यन्त कुशलता से सम्पादन करने वाले डाक्टर ए.एन्. उपाध्ये के साथ पढ़कर निश्चित किये। तथा अनुवाद के संशोधन में जैन धर्म के प्रकाण्ड विद्धान सि.शा.पं. देवकीनन्दनजी का भी समय-समय पर साहाय्य लिया गया। इन दोनों सहयोगियों की इस निर्व्याज सहायता का मुझ पर बड़ा अनुग्रह है। शेष समस्त सम्पादन, प्रूफशोधनादि कार्य मेरे स्थायी सहयोगी पं. हीरालालजी शास्त्री व पं. फूलचंदजी शास्त्री के निरन्तर साहाय्य से हुआ है, जिसके लिये मैं उन सबका बहुत कृतज्ञ हूँ। यदि इस कृति में कुछ अछाई व सौन्दर्य हो तो वह सब इसी सहयोग का ही सुफल है।
अब जिनके पूर्व परिश्रम, सहायता और सहयोग से यह कार्य सम्पन्न हो रहा है उनका हम उपकार मानते हैं। काल के दोष से कहो या समाज के प्रमाद से, इन सिद्धांत ग्रंथों का पठन-पाठन चिरकाल से विच्छिन्न हो गया था। ऐसी अवस्था में भी एकमात्र अवशिष्ट प्रति शताब्दियों तक सावधानी से रक्षा करने वाले मूडविद्री के सन्मान्य भट्टारकजी हमारे महान् उपकारी हुए हैं । गत पचास वर्षों में इन ग्रंथों को प्रकाश में लाने का महान् प्रयन्त करने वाले स्व.सेठ माणिकचन्दजी जवेरी, बम्बई, मूलचन्दजी सोनी अजमेर व स्व. सेठ हीराचन्द नेमीचन्दजी सोलापूर के हम अत्यन्त कृतज्ञ हैं। यह स्व. सेठ हीराचन्दजी के ही प्रयत्न का सुफल है कि आज हमें इन महान् सिद्धांतों के एक अंश को सर्वसुलभ बनाने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है । स्व. लाला जम्बूप्रसादजी जमीदार की भी लक्ष्मी सफल है जो उन्होंने इन ग्रंथों की एक प्रतिलिपि को अपने यहां सुरक्षित रखने की उदारता दिखाई और इस प्रकार उनके प्रकट होने में निमित्त कारण हुए। हमारे विशेष धन्यवाद के पात्र स्व. पं. गजपतिजी उपाध्याय और उनकी स्व.भार्या विदुषी लक्ष्मीबाई तथा पं.सीतारामजी शास्त्री हैं जिन्होंने इन ग्रंथों की प्रतिलिपियों के प्रचार का कठिन कार्य किया और उस कारण उन भाईयों के क्रोध और विक्षेष को सहन किया जो इन ग्रंथों के प्रकट होने में अपने धर्म की हानि समझते हैं। श्रीमान्