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प्रस्तावना
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एवंठिइयस्स इमस्स कम्मस्स अहापवत्तकरणेण जया घसण-घोलणाए कहवि एगं सागरोवम-कोडाकोडिं मोत्तूण सेसाओ खवियाओ हवंति। (स. क., पृ. ४४)
एवंठिइयस्स जया घसण-घोलणनिमित्तओ कहवि।
खविया कोडाकोडी सव्वा इक्कं पमुत्तूणं ॥ (श्रा. प्र. ३१) वहाँ सम्यग्दृष्टि के परिणाम की विशेषता को दिखलाते हुए जो आठ गाथाएँ (७२-७९) उद्धृत की गयी हैं वे प्रस्तुत श्रा. प्र. में उसी क्रम से ५३-६० गाथासंख्या से अंकित पायी जाती हैं।
तत्पश्चात् वहाँ विजयसेनाचार्य के मुख से यह कहलाया गया है कि पूर्वोक्त कर्मस्थिति में से भी जब पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र स्थिति और भी क्षीण हो जाती है तब उस सम्यग्दृष्टि जीव को देशविरति की प्राप्ति होती है। इतना निर्देश करने के पश्चात् वहाँ अतिचारों के नामनिर्देशपूर्वक पाँच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों का भी उल्लेख किया गया है। पश्चात् वहाँ यह कहा गया है कि इस अनुरूप कल्प से विहार करके परिणामविशेष के आश्रय से जब पूर्वोक्त कर्मस्थिति में से उसी जन्म में अथवा अनेक जन्मों में भी संख्यात सागरोपम मात्र स्थिति और भी क्षीण हो जाती है तब जीव सर्वविरतिरूप यतिधर्म को-क्षमामार्दवादिरूप दस प्रकार के धर्म को-प्राप्त करता है। इस प्रसंग में जो दो गाथाएँ (८०-८१) वहाँ उद्धृत की गयी हैं वे श्रा. प्र. में ३९०-९१ गाथांकों में उपलब्ध होती हैं। ये दोनों गाथाएँ सम्भवतः विशेषावश्यकभाष्य (१२१९-२०) से ली गयी हैं।
यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रस्तुत श्रा. प्र. में जिस क्रम से व जिस रूप में श्रावकधर्म का विस्तार के साथ विवेचन किया गया है, ठीक उसी क्रम से व उसी रूप में उसका विवेचन स. क. में गुणसेन राजा के प्रश्न के उत्तर में आचार्य विजयसेन के मुख से भी संक्षेप में कराया गया है। स. क. का प्रमुख विषय न होने से जो वहाँ उस श्रावकधर्म की संक्षेप में प्ररूपणा की गयी है वह सर्वथा योग्य है। परन्तु वहाँ जिस पद्धति से उसकी प्ररूपणा की गयी है वह श्रा. प्र. की विवेचन पद्धति से सर्वथा समान है-दोनों में कुछ भी भेद नहीं पाया जाता है। इस समानता को स्पष्ट करनेके लिए यहाँ कुछ उदाहरण दिये जाते हैं
१. जिस प्रकार श्रा. प्र. गा. ६ में श्रावकधर्म को पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत के भेद से बारह प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है उसी प्रकार स. क. में भी उसे बारह प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। यथा
तत्य गिहिधम्मो दुवालसविहो । तं जहा-पंच अणुब्बयाई तिण्णि गुणव्वयाई चत्तारि सिक्खावयाई ति। (स. क., पृ. ४३)
२. श्रा. प्र. गा.७ में यदि इस श्रावकधर्म की मूल वस्तु सम्यक्त्व को बतलाया गया है तो स. क. में भी उसकी मूल वस्तु सम्यक्त्व को ही निर्दिष्ट किया गया है। यथा
एयस्स उण दुविहस्स वि धम्मस्स मूलवत्थु सम्मत्तं। (स. क., पृ. ४३)
३. श्रा. प्र. गा. ८-३० में जीव और कर्म के अनादि सम्बन्ध को उस सम्यक्त्व का निमित्त बतलाकर जिस प्रकार से आठों कर्मों की प्ररूपणा की गयी है ठीक उसी प्रकार से स. क. में भी वह प्ररूपणा की गयी है। यथा
तं पुणो अणाइकम्म संताणवेढियस्स जन्तुणो दुल्लहं हवइ त्ति। तं च कम्मं अट्ठहा। तं जहा-णाणावरणिज्जं दरिसणावरणिज्जं.....सेसाणं भिन्नमहत्तं ति। (स. क., पृ. ४३-४४)
४. आगे श्रा. प्र. गा. ३१-३२ में जिस प्रकार घर्षण-घोलन के निमित्त से उस उत्कृष्ट कर्मस्थिति के क्षीण होने पर अभिन्नपूर्व ग्रन्थि का उल्लेख किया गया है उसी प्रकार स. क. में भी उसका उल्लेख किया गया है। यथा