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६. मतभेद
मूल ग्रन्थकारके समक्ष कुछ मतभेद भी रहे हैं । यथा
१. गाथा ३०३ में प्रथमतः यह निर्देश किया गया है कि व्यवहारसे साधु मोक्ष सहित पांचों गतियों और श्रावक उस मोक्षके बिना चारों गतियोंमें उत्पन्न होता है । तत्पश्चात् आगे वहाँ 'चउ-पंचमासु चउसु य जहा कमसो' ऐसा निर्देश करके मतान्तरसे साधुके चौथी (देवगति) और पांचवों (मोक्षगति) इन दो ही गतियों में उत्पन्न होनेकी तथा श्रावकके चारों गतियोंमें उत्पन्न होनेकी सूचना की गयी है।
२. गाथा ३३३ में किन्हींके अभिमतानुसार गृहस्थके तीन प्रकारके प्रत्याख्यानको असम्भव कहा गया है। इस मतका निराकरण करते हुए आगे इसी गाथामें पन्नत्ती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) के अनुसार विशेष रूपसे उक्त तीन प्रकारसे तीन प्रत्याख्यानको सम्भव निर्दिष्ट किया गया है। इसपर आगे गाया ३३४ में यह शंका उठायी गयी है कि तो फिर नियुक्ति (प्रत्याख्याननियुक्ति ) में अनुमतिका निषेध कैसे किया गया। इसका समाधान करते हुए वहींपर यह कहा गया है कि अनुमतिका निषेध वहाँ स्वविषयमें किया गया है। अथवा सामान्य प्रत्याख्यानमें उसका निषेध किया गया है, अन्यत्र तीन प्रकारसे तीन प्रकारका प्रत्याख्यान सम्भव है।
३. गाथा ३७८ में बारह प्रकारके गृहस्थधर्ममें गृहस्थके लिए अपश्चिम मारणान्तिको सल्लेखनाके आराधनका विधान किया गया है । आगे गाथा ३८२ में किन्हींके अभिमतको दिखलाते हुए यह कहा गया है कि चूंकि उस सल्लेखनाका विधान बारह प्रकारके गृहस्थधर्मके अन्तर्गत नहीं किया गया है, इसलिए संयत (साधु) उसमें अधिकृत है, न कि गृहस्य । इस अभिमतका निराकरण करते हुए आगे गाया ३८३-३८४ में कहा गया है कि वह बारह प्रकारके गृहस्थधर्मके अनन्तर ही कही गयी है तथा उसका अतिचारसूत्र भी श्रमणोपासकपुरःसर कहा गया है, इसलिए उसमें गृहस्थ ही अधिकृत है, न कि संयत । बारह प्रकारके गृहस्थधर्मसे उसके पृथक् कहनेका अभिप्राय यह है कि बारह प्रकारके उस गृहस्थधर्मका परिपालन श्रावक जीवित रहते हुए बहुत समय तक करता है जबकि उस सल्लेखनाका आराधन उसके द्वारा मरणसमयमें किया जाता है, इसलिए वह आयुके प्रायः क्षीण होनेपर कुछ थोड़े हो समय रहती है।
इस प्रकारका मतभेद सम्भवतः वाचक उमास्वातिके समक्ष नहीं रहा। टीकाकारके समक्ष मतभेद
१. गाथा ४७ की टीकामें क्षायोपशमिकसे औपशमिकके भेदको दिखलाते हुए कहा गया है कि क्षायोपमिक सम्यक्त्वमें उपशमप्राप्त मिथ्यात्वका प्रदेशानुभव होता है, पर औपशमिकमें वह नहीं होता। यहाँ मतान्तरको प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि अन्य आचार्य उसके व्याख्यानमें यह कहते हैं कि श्रेणिमध्यगत उस औपशमिक सम्यक्त्वमें ही उक्त मिथ्यात्वका प्रदेशानुभव नहीं होता, किन्तु द्वितीयमें वह होता है । फिर भी उसमें सम्यक्त्व परमाणुओंके अनुभवका अभाव ही है, यह उन दोनोंमें विशेषता है।
२. गाथा २८५ की टीकामें वृद्ध सम्प्रदायके अनुसार यह मतान्तर व्यक्त किया गया है कि अन्य आचार्य उपभोग-परिभोगकी योजना कर्मपक्षमें नहीं करते हैं।