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सामान्येन प्राणवधविरती शंका-समाधानम् निवृत्तिावृत्तिस्ततस्तस्माद्वधात्तस्य कर्मणः। न हि यद्यतो भवति तत्तत एव न भवति, भवनाभावप्रसङ्गादिति ॥१४९॥
तम्हा पाणवहोवज्जियस्स कम्मस्स क्खवण हेउत्ता।
तन्विरई कायव्वा संवररूव त्ति नियमेणं ॥१५०॥ यस्मादेवं वधहेतुकमेव तत्तस्मात् । प्राणवधोपाजितस्य कर्मणः क्षपणहेतुत्वात्तद्विरतिवंधविरतिः कर्तव्या संवररूपेति वधविरतिविशेषणा नियमेनावश्यतयेति ॥१५०॥ कि च
सुहिएसु वि वहविरई कह कीरइ नत्थि पावमह तेसु ।
पुन्नक्खओ वि हु फलं तब्भावे मुत्तिविरहाओ ॥१५१॥ सुखितेष्वपि प्राणिषु । वधविरतिापादननिवृत्तिः। किं क्रियते भवद्भिः ? नास्ति पापं क्षपणीयमथ तेषु सुखितेषु पुण्यनिमित्तत्वात्सुखस्य, एतदाशङ्कयाह-पुण्यक्षयोऽपि तद्वपापत्तिजनितः फलमेव, अतस्तेष्वपि वध[धा] विरतिप्रसङ्गः । कथं पुण्यक्षयः फलम् ? तदभावे पुण्यभावें मुक्तिविरहात् मोक्षाख्यप्रधानफलाभावात् पुण्यापुण्यक्षयनिमित्तत्वात्तस्येति ॥१५॥
अह तं सयं चिय तओ खवेइ इयरं पि किं व एमेव । कालेणं खवइ च्चियं उवक्कमो कीरइ वहेण ॥१५२॥
जीवोंका कभी वध नहीं करना चाहिए। इसपर यदि वादी उस कर्मको अहेतुक न मानकर उसे वधके निमित्तसे मानना चाहे तो वह भी असंगत होगा। कारण यह कि जो जिसके निमित्तसे उत्पन्न होता है वह उसोके निमित्तसे कभी नष्ट नहीं हो सकता है, यह एक अनुभवसिद्ध बात है । तदनुसार जीववधके आश्रयसे बँधनेवाला कर्म कभी उसो जीववधसे नष्ट नहीं हो सकता है ॥१४९।।
इससे जो निष्कर्ष निकलता है, उसे आगे दिखलाते हैं
इसलिए प्राणवधसे उपाजित कर्मके क्षयकी कारण होनेसे नियमतः संवरस्वरूप उस वधको विरति (परित्याग ) करना हो उचित है। अभिप्राय यह है कि जिसके आश्रयसे कर्म आता है उसे आस्रव और उसके निरोधको संवर कहा जाता है। तदनुसार प्राणवधसे चाक कर्म आता है, अतः उसके निरोधस्वरूप संवरका कारण होनेसे उस प्राणवधका परित्याग करना हा श्रेयस्कर है ॥१५०॥
वादीने सुखी जीवोंके वधको विरतिको जो अवश्यकरणीय कहा था उसके भी विषय में आगे दोष दिखलाते हैं
सुखी जीवोंके वधको विरतिको भी किस लिए किया जाता है ? उसे भी नहीं करना चाहिए । इसपर वादी यदि यह कहता है कि उनके क्षय करनेके योग्य पाप नहीं है, इसीलिए उनके वधकी विरति करायो जाती है। इसके उत्तरमें यह कहा गया है कि उनके पुण्य ता है जिसके निमित्तसे वे सुखको प्राप्त हैं, अतः वादीके मतानुसार पुण्यका क्षय भी उनके वधका फल ठहरता है। कारण यह कि पुण्यके सद्भावमें भी मुक्ति प्राप्त होनेवाली नहीं है, क्योंकि वह मुक्ति पुण्य और पाप दोनोंका क्षय होनेपर ही सम्भव है ॥१५॥
१. अखविइ च्चिय ।