Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 234
________________ १९२ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ३२१ - प्राण्युपमर्द इति । स च स्वयं कृतोऽन्येन वा कारितः इति न कश्चित्फले विशेषः, प्रत्युत गुणः, स्वयं गमन ईर्यापथविशुद्धेः परस्य पुनरनिपुणत्वात्त शुद्धिरिति ॥ ३२० ॥ व्याख्यातं सातिचारं द्वितीयं शिक्षापदमधुना तृतीयमुच्यतेआहारपोसहो खलु सरीरसक्कारपोस हो चैव । भवावारेसु य तइयं सिक्खावयं नाम || ३२१॥ आहार पौषधः खलु शरीरसत्कारपौषधश्चैव ब्रह्माव्यापारयोश्चेति ब्रह्मचर्यं पौषधोऽव्यापारपौषधश्चेति । इह पौषधशब्दः रूढया पर्वसु वर्तते । पर्वाणि चाम्यादितिथयः, पूरणात्पर्व धर्मोपचहेतुत्वादिति । तत्राहारः प्रतीतः, तद्विषयस्तन्निमित्तो वा पौषधः आहारपौषधः । आहारादिनिवृत्तिनिमित्तं धर्मपूरणं पर्वेतिभावना' । एवं शरीरसत्कारपौषधः । ब्रह्मचर्यपौषधः - अत्र चरणीयं चर्यम् 'अतो यत्' इत्यस्मादधिकारात् 'गद-मद-चर-यमश्चानुपसर्गः' इति 'यत्' ब्रह्म कुशलानुष्ठानम् । यथोक्तम्- ब्रह्म वेदो ब्रह्म तपो ब्रह्म ज्ञानं च शाश्वतम्। ब्रह्मवत् चर्यं चेति समासः, शेषं पूर्ववत् । तथाव्यापारपौषधः तृतीयं शिक्षाव्रतं नामेति । सूचनात्सूत्रमिति न्यायात्तृतीयं शिक्षापदव्रतमिति ॥३२१॥ एतदेव विशेषेणाह - 1 कंकड़ आदि फेंके जाते हैं, इसे पुद्गल क्षेप कहा जाता है। यह उसका पांचवां अतिचार है । ये पांचों अतिचार परित्याज्य हैं। देशावका शिकव्रतको इसलिए ग्रहण किया जाता है कि मर्यादित देश के बाहर न जाने से वहां स्थित जोवोंकों पीड़ा न पहुँचे । पर स्वीकृत क्षेत्रके बाहर स्वयं कर कार्य किया या किसी दूसरे से कराया, इसमें कुछ अन्तर नहीं है । प्रत्युत इसके, दूसरों को भेज आदि की अपेक्षा स्वयंके जाने में यह एक विशेषता भी है कि वह ईर्यापथकी शुद्धिपूर्वक जायेगा जो प्राय: दूसरोंसे सम्भव नहीं है, क्योंकि वे उस प्रकारसे प्राणियों के संरक्षण में सावधान नहीं रह सकते || ३२०|| अब क्रमप्राप्त तीसरे शिक्षापदके स्वरूपका निर्देश किया जाता है आहारपोषध, शरीरसत्कारपोषध, ब्रह्मचर्यपोषध और अव्यापारपोषध; इन सबका नाम तृतीय ( पोषध ) शिक्षापदव्रत है । विवेचन - यहाँ 'पौषध' शब्द पर्व के अर्थ में रूढ़ है । पर्वसे अभिप्राय अष्टमी व चतुर्दशी आदि धार्मिक तिथियों का है, क्योंकि इनके आश्रयसे धर्मकी पूर्ति ( उपचय ) हुआ करती है । आहारके निमित्तसे - उसके परित्याग ( अनशन आदि ) से जो धर्मका उपचय होता है उसे - आहार पौषध कहा जाता है। शरीरविषयक सत्कार – स्नान आदिसे उसके सुसज्जित करने के त्यागसे जो धर्मका संचय होता है उसका नाम शरीरसत्कारपोषध है । ब्रह्मवर्यपोषध से अभिप्राय कुशल अनुष्ठानका है। अमुक-अमुक व्यापारको में नहीं करूंगा, इस प्रकारके व्रतको अव्यापारपोषध समझना चाहिए ( गाथागत 'बंभव्वावारेसु' में ग्रन्थकारको व्यापारपोषध अभीष्ट है या अव्यापारपोषध, यह स्पष्ट नहीं है, टीकासे भी उसका कुछ स्पष्टीकरण नहीं होता ) । इस प्रकार के सब पौषधको यहां तीसरा शिक्षापदव्रत कहा गया है || ३२१|| आगे इसको कुछ विशेष रूपसे स्पष्ट किया जाता है १. अ धर्मपूरणं प्रवृर्तिभावना । २. अनुष्ठानां यथो ब्रह्म । ३. अ विशेषमाह ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306