Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 264
________________ २२२ : श्रावकप्रज्ञप्तिः [३७७एवं च विहरिऊणं दिक्खाभावंमि चरणमोहाओ। पत्तंमि चरमकाले करिज्ज कालं अहाकमसो ॥३७७|| एवं यथोक्तविधिना। विहृत्य नियतानियतेषु क्षेत्रेषु कालं नीत्वा। दीक्षाभाव इति प्रव्रज्याभावे सति । चरणमोहादिति चारित्रमोहनीयात्कर्मणः। प्राप्ते चरमकाले क्षीणप्राये आयुषि सतीत्यर्थः । कुर्यात्कालं यथाक्रमशो यथाक्रमेण परिकर्मादिनेति ॥३७७॥ भणिया अपच्छिमा मारणंतिया वीयरागदोसेहिं । संलेहणाझोसणमो आराहणयं पवक्खामि ।।३७८।। भणिता चोक्ता च । कैर्वोत-रागद्वेषैरहद्धिरिति योगः । का? अपच्छिमा मारणान्तिको संलेखनाजोषणाराधनेति। पश्चिमैवानिष्टाशयपरिहारायापश्चिमा। मरणं प्राणपरित्यागलक्षणम् । इह यद्यपि प्रतिक्षणमावीचीमरणमस्ति, तथापि न तद्गृह्यते। किं तहि ? सर्वायुष्कक्षयलक्षणमिति। मरणमेवान्तो मरणान्तः, तत्र भवा मारणान्तिकी बहूच इति ठज। संलिख्यतेऽनया शरीर-कषायादीति संलेखना तपोविशेषलक्षणा, तस्या जोषणं सेवनम् । मो इति निपातस्तत्कालश्लाघ्यत्वप्रदर्शनार्थः । तस्या आराधना अखण्डना, कालस्य करणमित्यर्थः। तां प्रवक्ष्यामीति । एत्थ सामायारी-आसेवियगिहिधम्मेण किल सावगेण पच्छा णिक्कमियव्वं । एवं सावगधम्मो उज्जमिओ होइ। ण सक्कइ ताहे भत्तपच्चक्खाणकाले संथारगसमणेण होयत्वं ति.ण सक्कड ताहे अणसणं कायक्वंति विभासा ॥३७॥ अत्राह आगे संलेखनाको ओर ध्यान दिलाया जाता है इस प्रकारसे विहार करके-नियत व अनियत क्षेत्रोंको यात्रा करके-चारित्र मोहका उदय रहनेसे दीक्षाके अभावमें अन्त समय (मरण ) के प्राप्त होनेपर यथाक्रमसे-आगे कही जानेवालो विधिके अनुसार कालको करना चाहिए-मरणको प्राप्त होना चाहिए ।।३७७|| अब उस संलेखनाके कथनकी प्रतिज्ञा को जाती है राग-द्वेषसे विनिर्मुक्त अरहन्त भगवान्के द्वारा मरण समयमें होनेवाली जिस अन्तिम संल्लेखनाका निर्देश किया गया है उसके सेवन व आराधनाकी विधि कही जाती है। विवेचन-- उक्त प्रकारसे बारह व्रतों एवं प्रतिमाओं आदिका पालन करके श्रावकको अन्तमें मुनिदोक्षाको स्वीकार करना चाहिए। परन्तु यदि चारित्र मोहनीयका उदय रहनेसे वह दीक्षाको ग्रहण नहीं कर सकता है तो फिर मरण समयके उपस्थित होनेपर उसे संस्तारक श्रमण हो जाना चाहिए । पर यदि यह शक्य नहीं है तो संलेखनाका अनुष्ठान करते हुए उत्तरोत्तर क्रमसे चार प्रकारके आहारका परित्याग करना चाहिए। संलेखना एक प्रकारका वह तप है जिसके आश्रयसे शरीर, कषाय और आहार आदिको उत्तरोत्तर कृश किया जाता है। उक्त शरीर व कषाय आदिके संल्लेखन-यथाविधि कृशीकरण-का नाम ही संलेखा है । इसका निरूपण ग्रन्थकार आगे कर रहे हैं ।।३७८।। श्रावक क्या करता है १. अकमसं। २. अ संलेहणसोसणमो। ३. अ पश्चमैवानिष्टशब्दपरि । ४. अ बहुइइ षट् । ५. भ इलाध्यत्वदर्शनास्तस्याराधनः खंडना ।

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