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श्रावकप्रज्ञप्तिः
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एवमप्रतिपतिते सम्यक्त्वे सति देव-मनुजजन्मसु चारित्रादेलाभः, उक्तपरिणामविशेषतः पुनस्तथाविधकर्मविरहादन्यतरणिवर्जमेकभवेनैव सण्यवाप्नोति सम्यक्त्वादोनोति ॥३९१॥ यदुक्तं शाश्वतसौख्यो मोक्ष इति तत्प्रतिपादयन्नाह--
रागाईणमभावा जम्माईणं असंभवाओ य ।
अव्याबाहाओ खलु सासयसुक्खं तु सिद्धाणं ॥३९२॥ रागादीनामभावाज्जन्मादीनामसंभवाच्च । तथा अव्याबाधातः खलु शाश्वतसौख्यमेव सिद्धानां इति गाथाक्षरार्थः ॥३९२॥ भावार्थमाह
रागो दोसो मोहो दोसाभिस्संगमाइलिंग त्ति ।
अइसंकिलेसरूवा हेऊ वि य संकिलेसस्स ॥३९३।। रागो द्वेषो मोहो दोषा अभिष्वङ्गादिलिङ्गा इ त । अभिष्प्रङ्गलक्षणो रागः, अप्रीतिलक्षणो द्वेषः, अज्ञानलक्षणो मोह इति । अतिसंक्लेशरूपास्तथानुभवोपलब्धः । हेतवोऽपि च संक्लेशस्य, क्लिष्टकर्मबन्धनिबन्धनत्वादिति ॥३९३॥
एएहभिभूआणं संसारीणं कुओ सुहं किंचि ।
जम्मजरामरणजलं भवजलहिं परियडताणं ॥३९४।। एभी रागादिभिरभिभूतानामस्वतन्त्रीकृतानां संसारिणां सत्त्वानाम् । कुतः सुखं किंचित् ? न किंचिदित्यर्थः । किविशिष्टानाम् ? जन्म जरा-मरणजलं भवजलधि संसारार्णवं पर्यटतां भ्रमतामिति ॥३९४॥
इस प्रकार देव व मनुष्य जन्मोंमें सम्यक्त्वके तदवस्थ रहनेपर जीव किसी एक श्रेणिको छोड़कर एक भवमें ही सबको-सम्यक्त्व, श्रुत, देशविरति और सर्वविरतिको पा लेता है ॥३९१।।
जिस शाश्वत सुखका पूर्व में निर्देश किया गया है वह किनके किस प्रकारसे होता है, इसका आगे निर्देश किया जाता है
रागादिकोंका सर्वथा अभाव हो जानेसे, जन्म-मरणादिकी सम्भावना न रहनेसे तथा सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंके हट जानेसे सिद्ध-कर्मोंसे विनिर्मुक्त-जीवोंके निश्चयसे वह शाश्वत सुख होता है ।।३९२॥
इसीको आगे स्पष्ट किया जाता है
राग, द्वेष और मोह ये अभिष्वंग (आसक्ति) के हेतु हैं-राग आसक्तिस्वरूप, द्वेष वैरभावरूप और मोह अज्ञानस्वरूप है। ये स्वयं अतिशय संक्लेशरूप होते हुए उस संक्लेशके–अतिशय क्लिष्ट कर्मबन्धके कारण भी हैं ॥३९३॥
इनसे अभिभूत ( आक्रान्त ) होकर जन्म, जरा व मरणरूप जलसे परिपूर्ण संसाररूप समुद्र में पड़ते हुए वहां परिभ्रमण करनेवाले संसारी जीवोंके वह सुख कहां किंचित् भी हो सकता है ? नही हो सकता। इसके विपरीत वे वहाँ सदा दुखी ही रहते हैं ॥३९४॥ १. अ तदुक्तं सास्वत । २. अ 'अतिसंक्लेशरूपास्तथानुभवोपलब्धेः हेतवोऽपि च' इत्येतावान् पाठः स्खलितोऽस्ति । ३. अ असंक्लेशस्य । ४. अ एएभिभूयाणं ।