Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 272
________________ [ ३९८ - More a comबाधादेव सकलेन्द्रियविषयभोगपर्यन्ते अशेषचक्षुरादीन्द्रिय प्रकृष्टरूपादिविषयानुभवचरमकाले औत्सुक्यनिवृत्तेरभिलाषव्यावृत्तेः कारणात् । संचारसुखमिव श्रद्धेयम्, तस्यापि तत्त्वतो विषयोपभोगतस्तदौत्सुक्य विनिवृत्तिरूपत्वात्तदर्थं भोगक्रियाप्रवृत्तेरिति । उक्तं च २३० श्रावकप्रज्ञप्तिः वेणु- वीणा - मृदंगादिनादयुक्तेन हारिणा । इलाध्यस्मरकथाबद्धगीतेन स्तिमितं सदा ॥१॥ कुट्टिमादौ विचित्राणि दृष्ट्वा रूपाण्यनुत्सुकः । लोचनानन्ददायीनि लीलावन्ति स्वकानि हि ॥२॥ अंबरागुरु- कर्पूर-धूप- गन्धान्वितस्ततः । पटवासादिगन्धांश्च व्यक्तमाघ्राय निस्पृहः ॥३॥ नानारससमायुक्तं भुक्त्वान्नमिह मात्रया । पीत्वोदकं च तृप्तात्मा स्वादयन् स्वादिमं शुभम् ॥४॥ मृदुतलीसमाक्रान्त दिव्यपयंक संस्थितः । सहसांभोद संशब्दं श्रुतेर्भयघनं भृशम् ॥५॥ २ जिस प्रकार समस्त इन्द्रिय विषयोंके भोग के अन्त में उत्सुकताके विनष्ट हो जानेसे संसार में TET रहित सुखकी प्रतीति हुआ करती है उसी प्रकार कर्मके अभाव में उत्सुकता के दूर हो जानेपर सिद्धों के वह निर्बाध सुख उत्पन्न होता है जो पुनरागमन सम्भव न रहनेसे सदा ही अवस्थित रहता है, ऐसी श्रद्धा करना चाहिए । विवेचन -- प्रकृत गाथामें उत्सुकता के नष्ट हो जानेपर कुछ समयके लिए संसार में भो जो निर्बाध सुख प्राप्त होता है, उसका उदाहरण यहाँ सिद्धोंके शाश्वतिक सुखकी पुष्टिमें दिया गया है । उसकी पुष्टि टीका में उद्धृत कुछ प्राचीन पद्योंके द्वारा की गयी है, जिनका अभिप्राय इस प्रकार है - प्राणी श्रोत्रइन्द्रियके वशीभूत होकर जब चित्ताकर्षक गानके सुननेके लिए उत्सुक होता है तब यदि उसे बाँसुरी, वीणा एवं मृदंग आदिकी ध्वनिसे संयुक्त और प्रशंसनीय कामकथासे सम्बद्ध मनोहर गीत सुनने को मिल जाता है तब उसकी वह उत्सुकता शान्त हो जाती है, इस प्रकार कुछ समय के लिए वह निराकुल सुखका अनुभव करता है। इसी प्रकार मनुष्य जब चक्षु इन्द्रियके वशीभूत होकर रत्नमय भूमि आदिमें नेत्रोंको आनन्द देनेवाले अपने लीलायुक्त अनेक प्रकारके रूपों को देखता है तब उसको वह उत्सुकता समाप्त हो जाती है, इसलिए वह तबतक निर्बाध सुखका अनुभव करता है । घ्राण इन्द्रियके वशीभूत होकर वह अम्बर ( वस्त्र ) अगुरु, कपूर और धूप आदिको गन्ध युक्त होता हुआ जब सुवासित वस्त्रोंको अनेक प्रकारकी गन्धों को भी सूँघता है तब उसकी उत्सुकता नष्ट हो जाती है, इसीलिए वह उतने समय के लिए निःस्पृह होकर निराकुल सुखका अनुभव करता है। वह रसना इन्द्रियके वश होकर जब अनेक रसोंसे युक्त भोजनको परिमित मात्रा में ग्रहण करके पानीको पीता है तथा उत्तम स्वादिष्ट लाड़ आदिको चखता है तब उसकी आत्मा सन्तोषका अनुभव करती है। इस प्रकार वह तबतक निर्बाध सुखका अनुभव करता है । स्पर्शन इन्द्रियके वश मनुष्य जब कोमल रुईसे भरी हुई गादीसे संयुक्त पलंगपर स्थित होता हुआ सहसा भयप्रद मेघकी गर्जनाके शब्दको सुनकर भयभीत हुई प्रिय ० ० १. अ प्रकृष्टविषयानुभव । २. अ श्रुतेभयधनं ।

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