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-३८५] अपश्चिमसलेखनाविधिः
२२५ ओगेत्यादि-तस्मान्नास्यां संलेखनायां यतिरसौ श्रावकः, अपि च गृहोति संबन्धः। किं तु श्रावक एवेत्यर्थः। कुत इत्याह-परिणामादेव तस्यामपि देशविरतिपरिणामसंभवादनशनप्रतिपतावपोषन्ममत्वापरित्यागोपलब्धः सर्वविरतिपरिणामस्य दुरापत्वात्सति तु तस्मिन् स्यात् यतिरिति । सूत्रान्तरतश्च, यत उक्तं सूत्रकृतांगे' इत्यादीति ॥३८४॥ इयमपि चातिचाररहिता सम्यक्पाललीयेति तानाह
इह-परलोगासंसप्पओग तह जीय-मरण-भोगेसु ।
वैज्जिज्जा भाविज्ज य असुहं संसारपरिणामं ॥३८५॥ इह लोको मनुष्यलोकः तस्मिन्नाशंसाभिलाषः तस्याः प्रयोग इति समासः, श्रेष्ठी स्याममात्यो वेति ।१॥ एवं परलोकाशंसाप्रयोगः। परलोको देवलोकः ।। एवं जीविताशंसाप्रयोगःजीवितं प्राणधारणं तत्राभिलाषप्रयोगः “यदि बहकालं जोवेयम्" इति । इयं च वस्त्र-माल्य-पुस्तकवाचनादिपूजादर्शनाद्बहुपरिवारदर्शनाच्च लोकश्लाघाश्रवणाच्चैवं मन्यते "जीवितमेव श्रेयः प्रत्याख्याताशनस्यापि, यत एवंविधा मदुद्देशेनेयं विभूतिर्वर्तते" ॥३॥ मरणाशंसाप्रयोगः-न कश्चित्तं प्रतिपन्नानशनं गवेषते, न सपर्यायामाद्रियते, न कश्चिच्छ्लाघते, ततस्तस्यैवंविधचित्तपरिणामो भवति यदि शीघ्र म्रियेऽहम् अपुण्यकर्मेति मरणाशंसा ।।। कामभोगाशंसाप्रयोगः-जन्मान्तरे
इमे पंचं अइयारा' इत्यादि ) उस श्रावकका निर्देश करते हुए उसके ही आश्रयसे कहा गया है, इसलिए उसमें प्रवृत्त गृहस्थ परिणामसे यति नहीं होता, किन्तु गृहस्थ ही रहता है।
विवेचन-दूसरी युक्ति यहाँ यह दी गयी है कि आगममें संलेखनाके अतिचारों विषयक सूत्रका निर्देश करते हुए उसमें यह स्पष्ट कहा गया है कि श्रमणोंके उपासक श्रावकको इहलोकाशंसाप्रयोग आदि संलेखनाके पांच अतिचारोंको जानना चाहिए व उनका आचरण नहीं करना चाहिए-उनका परित्याग करना चाहिए। इससे सिद्ध है कि संलेखनाका आराधक श्रावक श्रावक ही रहता है. मनि नहीं होता। इसका कारण यह है कि संलेखनामें अधिष्ठित श्रावकके 6 अनशनादिको स्वीकार करनेपर भी देशविरतिरूप ही रहते हैं, न कि सर्वविरतिरूप, क्योंकि वह कुछ अंशमें ममत्व परिणामको नहीं छोड़ पाता है ॥३८४।।
अब उसके अतिचारोंका निर्देश करते हए उनके छोड देने की प्रेरणा की जाती है
इहलोकाशंसाप्रयोग, परलोकाशंसाप्रयोग, जीविताशंसाप्रयोग, मरणाशंसाप्रयोग और भोगाशंसा प्रयोग ये पांच संलेखनाके अतिचार हैं। उनका परित्याग करके अशुभ संसारपरिणामजन्म-मरणादिस्वरूप संसारके स्वभाव-का चिन्तन करना चाहिए।
विवेचन-(१) इहलोकसे यहां मनुष्यलोक विवक्षित है, उसमें 'मैं सेठ हो जाऊं या अमात्य हो जाऊँ' इस प्रकारको अभिलाषामें प्रवृत्त होना, इसका नाम इहलोकाशंसाप्रयोग है। (२) इसी प्रकारसे परलोकके विषयमें 'मैं अगले जन्म में देव हो जाऊँ' इस प्रकारकी अभिलाषा रखना. इसका नाम परलोकाशंसा प्रयोग है। (३) संलेखनामें अधिष्ठित होनेपर वस्त्र, माला और पुस्तकवाचन आदि रूप पूजाको देखकर, बहुतसे परिवारको देखकर तथा लोगोंके द्वारा की जानेवाली प्रशंसाको सुनकर यह सोचना कि भोजनका परित्याग कर देनेपर भी बहुत समय तक जीवित रहना श्रेयस्कर है, क्योंकि मेरे उद्देशसे यह विभूति वर्तमान है, इस प्रकारके विचारको जीविताशंसा कहा जाता है। (४) अनशनके स्वीकार करनेपर भी जब कोई उसको नहीं खोजता है, न
१. अ सूत्रांगे। २. अ वज्जेज्जा भावेज्ज य अशुभं परिणाम । ३. अ°लोको । ४. अ लोका एवं ।
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