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चतुर्थशिक्षापदप्ररूपणा
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आत्मानुग्रहबुद्धया, न पुनर्यत्यनुग्रहबुद्धयेति । तथाहि-आत्मपरानुनहपरा एव यातयः संयता मूलोत्तरगुणसंपन्नाः साधवस्तेभ्यो दानमिति । एतन्जिनस्तीर्थकरैर्भणितम् । गृहिणः श्रावकस्य । शिक्षापदमिति शिक्षापदव्रतम् । चरमं अतिथिसंविभागाभिधानम् । इह भोजनार्थ भोजनकालोपस्थाय्यतिथिरुच्यते । आत्मार्थनिष्पादिताहारस्य गृहिणो व्रती साधुरेवातिथिः । यत उक्तम्
तिथिः पर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्ता येन महात्मना ।
अतिथि तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः ।। तस्य संविभागो अतिथिसंविभागः। संविभागग्रहणात्पश्चात्कर्मादिपरिहारमाहेति ।
एन्थ सामायारी-सावगेण पोसहं पारंतेण नियम साधूणमदाउं न पारेयन्वं, दाउं पारेयव्वं । अन्नया पुण अनियमो दाउं वा पारेइ, पारिए बा देइ ति । तन्हा पुन्वं साहूणं दाउं
विवेचन–अतिथिसंविभाग नामक इस चौथे शिक्षापद व्रतमें यहाँ दाता, देय, द्रव्य और दानके पात्र आदिका विचार करते हुए यह कहा गया है कि श्रावक मूल और उत्तर गुणोंसे सम्पन्न मुनि जनके लिए जिन आहार, पान, वस्त्र, पात्र और औषध आदि वस्तुओंको देता है वे न्यायसे उपार्जित की गयी होनी चाहिए-अन्यायोपाजित नहीं होनी चाहिए। न्यायसे अभिप्राय यहाँ उस आजीविकासे है जो लोकमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए नियत है। तदनुसार नीतिपूर्वक आजीविकाको करते हुए जो आहारादिके योग्य वस्तुएँ प्राप्त की गयी हैं तथा साधुके लिए देनेके योग्य हैं, उन्हें ही देना चाहिए। गाथा ( ३२६ ) में जो 'कल्पनीय' पदको ग्रहण किया गया है उसका अभिप्राय यह है कि शरीरको स्थिर रखने व धर्मके परिपालन के लिए अन्न, पान, वस्त्र, पात्र और औषध आदि वस्तुएँ ही साधुके लिए आवश्यक हैं; अतः साधुके लिए ऐसी ही आवश्यक वस्तुओंको देना चाहिए। इससे सुवर्ण-चांदी आदि मुनिधर्मकी विघातक अनावश्यक वस्तुओंके देनेका निषेध प्रकट कर दिया गया है। कारण यह कि मुनिधर्मको स्वीकार करते हुए साधु उन्हें पूर्वमें हो छोड़ चुका है। इसके अतिरिक्त उक्त कल्पनीय पदके ग्रहणसे यह भी समझ लेना चाहिए कि उपर्युक्त अन्नादि वस्तुएं भी पिण्डनियुक्ति निर्दिष्ट उद्गम व उत्पादन आदि दोषोंसे रहित होनी चाहिए। इसके साथ दाता श्रावकको देश, काल, श्रद्धा, सत्कार और क्रमसे युक्त होना चाहिए। भिन्न-भिन्न देशमें प्रायः विविध प्रकारका अनाज-जैसे धान, कोदों, कांगनी व गेहूँ आदि-तथा अनेक प्रकारकी शाक व फल आदि उत्पन्न हुआ करते हैं। अतएव जो वस्तु जिस देश में प्रमुखतासे उत्पन्न हुआ करती है तदनुसार ही भोज्य वस्तुको सदोषता व निर्दोषताका विचार करते हुए दाताको तदनुरूप ही वस्तु साधुके लिए देनी चाहिए। कालकी अपेक्षा सुभिक्ष व दुर्भिक्ष आदिका विचार करना भी आवश्यक है। चित्तकी निर्मलताका नाम श्रद्धा है । सत्कारसे अभिप्राय विनयका है-जब साधु आहारग्रहणके लिए आता है तब दाताको खड़े होकर वन्दनापूर्वक आसन आदि प्रदान करना चाहिए तथा साधुके वापस जानेपर यथासम्भव कुछ दूर तक उसके पीछे-पीछे जाना चाहिए; यह सब सत्कारके अन्तर्गत है । पेय आदिको परिपाटीके अनुसार अन्न-पान आदिके प्रदान करनेका नाम क्रम है। इस सबके परिज्ञानके साथ तदनुरूप ही श्रावककी प्रवृत्ति होनी चाहिए। दान भी अतिशय भक्तिके साथ-साधके अनुराग रखते हुए-देना चाहिए। इसके अतिरिक्त साधुको आहार आदि देते हुए श्रावकको यह अनुभव करना चाहिए कि यह मेरे लिए आत्मकल्याणकारी सुयोग प्राप्त हुआ है। इस प्रकार
गुणोंमें
१. भस्थाप्यतिविरुच्यते तथा स्वार्थनिष्पादिताहारस्य ।