Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 240
________________ १९८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ३२६ - पच्छा पारेपव्वं । कह ? जाहे देसकालो' ताहे अप्पणो सरीरस्स विभूसं काउं साहुपडिस्सयं गंतुं णिमंतेइ भिक्खं गेण्हह ति। साहूणं का पडिवत्ती ? ताहे अन्नो पडलयं अन्नो मुहणंतगं अन्नो' भायणं पडिलेहेइ मा अंतराइयदोसा ठवणा दोसो य भविस्सन्ति । सो जइ पढमाए पोरिसीए णिमंतेइ अस्थि णमोक्कारसहियाइता तो गच्छइ, अह नत्थि न गच्छइ, तं ठवियत्वं होइ जइ घणं लगेज्जा ताहे गेण्हइ संविक्ताविज्जइ जो व उग्घाडाए पोरसीए पारेइ पारणाइतो अन्नो वा तस्स दिज्जई सामनेणं नाए कहिए पच्छा तेण सावगेण समं गम्मइ संघाडगो वच्चइ एगो न वट्टइ पटवेउं । साह पूरओ सावगो मग्गओ घरं णेऊण आसणेण उवणिमंतिज्जइ। जइ णिविट्रो लट्टयं 'अह ण णिविसति तहा वि विणओ° पयत्तो। ताहे भत्तपाणं देइ सयं चेव, अहवा भाणं घरेइ भज्जा से देइ । अहव ठिओ अच्छइ जहा दिन्नं। साहुवि सावसेसं'' दव्वं गेलइ । पच्छाकम्मपरिहरणट्ठा दाउं वंदिऊण विसज्जेइ । विसज्जिता अणुगच्छइ पच्छा सयं भुंजइ । जं च आत्मोपकारकी दृष्टिसे ही दान देना चाहिए, न कि साधुके उपकार करनेकी बुद्धिसे । कारण यह कि साध मल व उत्तर गणोंसे संयक्त होते हए निरन्तर अपने व अन्यके उपकारमें निरत होते हैं, इसीलिए उन्हें संयत कहा जाता है। ऐसे संयतोंके लिए आहारादि प्रदान करनेसे श्रावकका पुण्योपार्जनरूप आत्मकल्याण होता है। यहां प्रकृत 'अतिथिसंविभागवत' के अन्तर्गत 'अतिथि' शब्दसे यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए कि जिन महापुरुषोंने तिथि व पर्व आदि सब उत्सवोंका परित्याग कर दिया है उन्हें अतिथि जानना चाहिए। शेष जनोंको अभ्यागत कहा जाता है, न कि अतिथि। ऐसे संयत आहारके ग्रहणार्थ जो गृहस्थके घरपर उपस्थित होते हैं वे अपने निमित्तसे निर्मित ( उद्दिष्ट ) भोजनको कभी नहीं ग्रहण किया करते हैं, किन्तु जिसे गृहस्थ अपने उद्देश्य से तैयार करता है उस अनुद्दिष्ट भोजनको ही परिमित मात्रामें ग्रहण किया करते हैं। ऐसे अतिथिके लिए श्रावक अपने निमित्तसे निर्मित भोजनमें से जो विभाग करता है यह उस अतिथिसंविभाग शिक्षापदका लक्षण है। 'संविभाग' पदसे यह भी प्रकट है कि श्रावक यथाविधि साधके लिए जो अपने भोजनमें-से विभाग करता है उससे उसके पुरातन कर्मका भी विभाग (निर्जरा) होता है। 'एत्थ सामायारी' ऐसो सूचना करते हुए टोकामें प्रकृत पोषधव्रतको विधि आदिके विषय में विशेष प्रकाश डाला गया है। यथा-पोषधको समाप्त करते हुए श्रावकको नियमसे साधुओंको दिये बिना पारण नहीं करना चाहिए, किन्तु उन्हें देकर ही पारणा करना चाहिए। दूसरे समय में इसका कुछ नियम नहीं है-वह उन्हें देकर भी पारणा कर सकता है, अथवा पारणा करनेके बाद भी दे सकता है। इसलिए पूर्व में साधुओंको देकर तत्पश्चात् पारणा करना चाहिए। जब गोचरीका समय हो तब देश-कालके अनुसार अपने शरीरको विभूषित करके साधुओंके प्रतिश्रय ( उपाश्रय ) में जावे और 'भिक्षा ग्रहण कीजिए' इस प्रकार कहकर उन्हें निमन्त्रित करे। साधुओंकी क्या प्रतिपत्ति है ? उस समय अन्य पटलक, अन्य मुहणतक (मुखवत्रिका) और अन्य पात्रका 'आन्तरायिक अथवा स्थापनादोष न हों' इस विचारसे प्रतिलेखन करे। वह यदि प्रथम पौरुषीमें १. मजा देसकालो। २. अ ताहिं । ३. अ 'पडलयं अन्नो मुहणंतगं अन्नो' इत्येतावान् पाठो नास्ति । ४. अ भोयणं । ५. अ अंतराईयदोसा ठविगदोसा । ६. अ ताहे गब्भइ संविक्ताविक्तइ जो व उग्घोडार पोरसीए पारणाए पारणा इत्तो वा तस्स दिज्जइ। ७. ७. अ पट्टवेइउ साहु । ८. अ जए णविट्ठो लव्वयं । ९. अणवसति । १०. अ वणओ। ११. अ ट्रिओ अत्तए जाव दिन्नं साह वि साविसेसं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306