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श्रावकस्य दैनिककृत्यम् न य संसारम्मि सुहं जाइ-जरा-मरणदुक्खगहियस्स ।
जीवस्स अस्थि जम्हा तम्हा मुक्खो उवादेओ ॥३६०॥ न च संसारे सुखं जातिजरामरणदुःखगृहीतस्य । जीवस्यास्ति यस्मादेवं तस्मान्मोक्ष उपादेयः ॥३६०।। किंविशिष्ट इत्याह
जच्चाइदोसरहिओ अव्वाबाहसुहसंगओ इत्थ ।
तस्साहणसामग्गो पत्ता य मए बहू इन्हि ॥३६१॥ जात्यादिदोषरहितोऽव्याबाधसुखसंगतोऽत्र संसारे । तत्साधनसामग्री प्राप्ता च मया बह्वीदानीम् ॥३६१॥
ता इत्थ जं न पत्तं तयत्थमेवुज्जमं करेमि त्ति ।
विबुहजणनिदिएणं किं संसाराणुबंधेणं ॥३६२॥ तदत्र सामग्र्यां' यन्न प्राप्तं तदर्थमेवोद्यमं करोमीति । विबुधजननिन्दितेन कि संसारानुबन्धेन ॥ इति निगदसिद्धो गाथात्रयार्थः ॥३६२॥ इत्थं चिन्तनफलमाह
वेरग्गं कम्मक्खय विसुद्धनाणं च चरणपरिणामो।
थिरया आउ य बोही इयं चिंताए गुणा हुति ॥३६३॥ अब वह मोक्ष क्यों उपादेय है, इसका हेतु दिखलाते हैं
जन्म, जरा और मरणके दुःखको सहते हुए प्राणीको चूँकि संसारमें सुख नहीं उपलब्ध होता, इसीलिए मोक्ष उपादेय है-प्राप्त करनेके योग्य है. ॥३६०॥
आगे सांसारिक क्षणिक सुखकी अपेक्षा मोक्षसुखकी उत्कृष्टता प्रकट की जाती है
मोक्षको प्राप्त होकर जीव वहां जन्म, जरा और मरणके दोषसे रहित होता हुआ निर्बाध सुखसे युक्त हो जाता है। वह ( मुमुक्षु ) विचार करता है कि मैंने इस समय उस मोक्ष सुखकी साधनभूत सब सामग्री-उपर्युक्त मनुष्य पर्याय, आर्यदेश, उत्तम कुल और शारीरिक बल आदिको प्राप्त, कर लिया है ॥३६१॥
इसलिए अब मुझे क्या करना चाहिए, इसके लिए वह विचार करता है--
इसलिए जिसे मैंने अब तक प्राप्त नहीं किया है उसके लिए-अप्राप्त केवलज्ञानादिकी प्राप्तिके लिए-मैं उद्यम (प्रयत्न ) करता हूँ। विद्वानोंके द्वारा निन्दित संसारके अनुबन्धसेउसकी परम्परासे-मुझे क्या लाभ होनेवाला है ? कुछ भी नहीं, क्योंकि वह तो दुखप्रद ही रही है ॥३६२॥
इस चिन्तनसे श्रावकको क्या लाभ होनेवाला है, इसे आगे प्रकट किया जाता है
१. अमोक्खो उवाएउ । २. अ यस्मात्तस्मान्मोक्ष। ३. अ एण्हि । ४. म 'संसारे' इति कोष्ठकान्तर्गतोऽस्ति । ५. अ एत्थ । ६. अ.सामग्रयं म 'सामग्रयां' इति कोष्ठकान्तर्गतोऽस्ति । ७. म वैरग्गं । ८. अ वोही य इय।
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