Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 258
________________ २१६ श्रावकप्रशप्तिः [३५७ - तेष्वपि चे पश्चेन्द्रियेषु मानुषत्वम्, उत्कृष्टमिति वर्तते । मनुजत्वे आर्यो देश उत्कृष्ट इति, देसे कुलं पहाणं कुले पहाणे य जाइ उक्कोसा । तीइवि रूवसमिद्धी रूवे य बलं पहाणयरं ॥३५७॥ देशे आर्ये कुलं प्रधानं उग्रादि । कुले प्रधाने च जातिरुत्कृष्टा मातृसमुत्था। तस्यामपि जाती रूपसमृद्धिरुत्कृष्टा, सकलाङ्गनिष्पत्तिरित्यर्थः । रूपे च सति बलं प्रधानतरं सामर्थ्य मिति ॥३५७॥ होइ बले वि य जीयं जीए वि पहाणयं तु विनाणं । विनाणे सम्मत्तं सम्मत्ते सीलसंपत्ती ॥३५८॥ भवति बलेऽपि च जीवितं प्रधानतरमिति योगः। जीवितेऽपि च प्रधानतरं विज्ञानम्, विज्ञाने सम्यक्त्वम्, क्रिया पूर्ववत् सम्यक्त्वे शीलसंप्राप्तिः प्रधानतरेति ॥३५८॥ सीले खाइयभावो खाइयभावे य केवलं नाणं । केवलिए पडिपुन्ने पत्ते परमक्खरे मुक्खो ॥३५९॥ शोले क्षायिकभावः, प्रधानः क्षायिकभावे च केवलज्ञानम्, प्रतिपक्षयोजना सर्वत्र कार्येति । कैवल्ये प्रतिपूर्णे प्राप्ते परमाक्षरे मोक्ष इति ॥३५९॥ है, उन त्रस जीवोंमें भी पंचेन्द्रिय अवस्था उत्कृष्ट है, पंचेन्द्रियोंमें भी मनुष्यकी पर्याय उत्कृष्ट है, मनुष्य पर्यायमें भी आर्यदेश उत्कृष्ट है ॥३५६॥ __आर्य देशमें भी कुल प्रधान है - उत्तम उग्र व इक्ष्वाकु आदि वंश उत्कृष्ट हैं, प्रधान कुलमें भी जाति-माताका वंश--उत्कृष्ट है, उत्कृष्ट जाति में रूप समृद्धि-समस्त अवयवोंकी परिपूर्णताउत्कृष्ट है, रूपमें बल-शारीरिक सामर्थ्य उससे उत्कृष्ट है ॥३५७।। __ बलमें भी जीवित-आयुको दीर्घता-उत्कृष्ट है, जीवितमें भी विशिष्ट ज्ञान (विवेक) प्रधान है, विशिष्ट ज्ञानमें सम्यक्त्व-यथार्थ तत्त्वश्रद्धान-प्रधान है, सम्यक्त्वके होनेपर शीलकी प्राप्ति उत्कृष्ट है ॥३५८॥ ____ शीलकी प्राप्तिके होनेपर क्षायिक भाव प्रधान है, क्षायिक भावमें केवलज्ञान प्रधान है, परिपूर्ण व परमाक्षर-अतिशय अविनश्वर-केवल ज्ञानके होनेपर मोक्ष प्रधान है ॥३५९॥ विवेचन-यहां श्रावकके लिए यह प्रेरणा की गयो है कि वह सोतेसे उठकर यह विचार करे कि जीव अनादि कालसे निगोद पर्याय में रहता है जहां से निकलना अतिशय दुर्लभ है। यदि किसी प्रकार वहांसे निकलता तो वह पृथिवीकायिकादि अन्य स्थावर जीवोंमें परिभ्रमण करते हए बड़ी कठिनाईसे त्रस पर्याय प्राप्त कर पाता है। इस त्रस पर्याय में परिभ्रमण करते हए उसे पंचेन्द्रिय पर्यायकी प्राप्ति दुर्लभ रहती है । यदि जिस किसी प्रकारसे पंचेन्द्रिय अवस्था भी प्राप्त हो गयो तो उसमें मनुष्य पर्याय, उसमें आर्यदेश, आर्यदेशमें उत्तम कुल, उसमें उत्तम जाति, अवयवोंकी परिपूर्णता, शरीरकी स्वस्थता, दीर्घ जीवन, विशिष्ट ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सदाचार, क्षायिक भाव तथा क्षायिक भावोंमें केवलज्ञान ये उत्तरोतर अतिशय दुर्लभ रहते हैं । इस प्रकारका निरन्तर विचार करते रहनेसे उसे धर्म में अनुराग और संसारसे वैराग्य होता है जिसके आश्रयसे वह उस दुर्लभ केवलज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र मुक्त हो सकता है ।।३५६-३५९।। १. म 'च' नास्ति । २. अ आर्योपदेश । ३. अ पहाणो य जाइमुक्कोसो। ४. अताए रूवसमिट्टी । ५. म 'तु' नास्ति । ६. अपडिवन्ने । ७. भमोक्खो।

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