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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[ ३२५ - पोसहो पूरिहिइ चइयामो बंभचेरेणंति । अन्वावारे सावज्जाणि वावारेइ कयमकयं वा चितेइ एवं पंचातियारसुद्धो अणुपालेयन्वोत्ति गाथाद्वयभावार्थः ॥३२४॥ उक्तं सातिचारं तृतीयं शिक्षापदव्रतमधुना चतुर्थमुच्यते
नायागयाण अन्नाइयाण तह चेव कप्पणिज्जाणं ।
देसद्धसद्धसक्कारकमजुयं परमभत्तीए ॥३२५॥ न्यायागतानामिति-न्यायो द्विजःक्षत्रिय-विट्-शूद्राणां स्ववृत्त्यनुष्ठानम्। स्ववृत्तिश्च प्रसिद्धैव प्रायो लोकहेर्या, तेनेदृशन्यायेनागतानां प्राप्तानाम् । अनेनान्यायागतानां प्रतिषेधमाह । अन्नादीनां द्रव्याणाम. आदिग्रहणात्पान-वस्त्र-पात्रौषध-भेषजादिपरिग्रहः। अनेनापि हिरण्यादिव्यवच्छेदमाह । कल्पनीयानामिति उद्गमादिदोषपरिवजितानाम् । अनेनाकल्पनीयानां निषेधमाह । देश-काल-श्रद्धा-सत्कार-क्रमयुक्तम्-नानाव्रीहि-कोद्रव-कङ्ग-गोधूमादिनिष्पत्तिभाग्देशः, सुभिक्षदुभिक्षादिः कालः, विशुद्धचित्तपरिणामः श्रद्धा, अभ्युत्थानासनदान-वंदनाद्यनुव्रजनादिः सत्कारः, पाकस्य पेयादिपरिपाट्या प्रदानं क्रमः, एभिर्देशादिभिर्युक्तं समन्वितम् । अनेनापि विपक्षव्यवच्छेदमाह । परमया प्रधानया भक्त्या इत्यनेन फलप्राप्तौ भक्तिकृतमतिशयमाहेति ॥३२५॥
आयाणुग्गहबुद्धीइ संजयाणं जमित्थ दाणं तु ।
एयं जिणेहि भणियं गिहीण सिक्खावयं चरिमं ॥३२६॥ प्रार्थना [ नहीं ] करता और [न] उनको धारण करता है; अथवा वह शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धकी भी अभिलाषा [नहीं] करता है, इस प्रकारसे वह ब्रह्मचर्य पौषधका पालन करता है व उससे च्युत नहीं होता है। अव्यापार पौषधमें वह सावध कर्मों में व्याप्त नहीं होता तथा कृत. अकृतका विचार करता है। इस प्रकार पांच अतिवारोंसे शुद्ध होकर व्रती श्रावक प्रकृत पौषधव्रतका परिपालन करता है । इससे इन दो ( ३२३-३२४ ) गाथाओंका भावार्थ प्रकट किया गया है ॥३२४॥
इस प्रकार अतिचार सहित तीसरे शिक्षापदका निरूपण करके अब चौथे शिक्षापदके स्वरूपको दिखलाते हुए क्या देना चाहिए व उसे किस प्रकारसे देना चाहिए, इसका निर्देश किया जाता है
न्यायसे उपार्जित तथा कल्पनीय ( संयतके लिए देने योग्य ) अन्न आदि-अन्न, पान, वस्त्र, पात्र व औषध आदि-को जो देश, काल, श्रद्धा, सत्कार और क्रमसे युक्त अतिशय भक्तिके साथ दिया जाता है; यह चौथा शिक्षापद व्रत है ॥३२५।।
आगे इसे स्पष्ट करते हुए उन वस्तुओंको किनके लिए व किस बुद्धिसे दिया जाता है, इसको सूचना की जाती है
पूर्वगाथामें निर्दिष्ट उन कल्पनीय अन्नपानादिकोंका जो अपने अनुग्रहकी बुद्धिसे संयतोंके लिए दान किया जाता है, इसे जिन भगवान्ने गृहस्थोंका अन्तिम ( चौथा ) अतिथिसंविभाग नामका शिक्षापद कहा है।
१. पूरिहिए चईय बंभचरेणंति । २. अ कप्पणिज्जाणे। ३. अ 'द्विज' इत्यतोऽग्रे 'प्राप्तानामनेनान्यायागतानां प्र'पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । ४. अ परिग्रहं (अतोऽग्रेऽस्या गाथायाष्टीकायाः सर्वोऽपि पाठोऽस्तव्यस्तोऽस्ति-अध उपरि यत्र कुत्रापि किंचिल्लिखितमस्ति । ५. अ तमेत्थ ।