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तृतीय शिक्षापदप्ररूपणा
तथा अप्रमार्जित - दुःप्रमाजितशय्या संस्तारकावेव ।
इहाप्रमार्जनं शय्यादेरासेवनकाले वस्त्रोपान्तादिनेति, दुष्टमविधिना प्रमार्जनम् । शेषं भावितमेव । एवमुच्चारप्रस्रवगभुवमपि । उच्चारप्रस्रवणं निष्ठचूत - स्वेदमलाद्युपलक्षणम् । शेषं भावितमेव ॥ ३२३॥ गाहा - तह चैव य उज्जुतो विहीर इह पोसहम्मि वज्जिज्जा । सम्म च अणणुपालणमाहाराईसु सव्वेसु || ३२४ ॥
तथैव च यथानन्तरोदितमुद्युक्तो विधिना प्रवचनोक्तक्रियया निःप्रकम्पेन मनसा । इह पौषधे पौषधविषयं वर्जयेत् । किम् ? सम्यगननुपालनं चेति । क्व ? आहारादिषु सर्वेषु सर्वाहारादिविषयांमति गाथाक्षरार्थः ।
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एत्थ भावणा - कयपोसहो अथिरचित्तो आहारे ताव सव्वं देतं वा पत्थेइ ? बीयदिवसे पारणगस्स वा अप्पणोट्टाए आढत्ति करेइ कारवेइ वा इमं इमं वत्ति करेह ? न वट्टइ सरीरसक्कारे - सरीरमुखट्टेइ, दाढियाउ केसे वा रोमाई वा सिंगाराभिप्पाएण संठवेइ, दाहे वा सरीरं सिचाइ, एवं सव्वाणि सरीरविभूसाकारणाणि परिहरइ । बंभचेरे इहलोइए वा परलोइए भोगे पत्थेइ संवाहेई वा अहवा सद्द फारस रस- रूव-गंधे वा अभिलसइ कइया बंभचेर
चौथा अतिचार है । यहाँ टीकाकार हरिभद्र सूरने 'शय्या संस्तारक' में प्रथमतः द्वन्द्व समासके आधारसे शय्या और संस्तार इन दोको पृथक्-पृथक् ग्रहण किया है । पश्चात् विकल्प रूपमें उन्होंने कर्मधारय समासके आधारसे शय्याको हो संस्तारकके रूपमें ग्रहण कर लिया है । यहाँ 'एत्थ सामायारी' ऐसा निर्देश करते हुए कहा गया है कि जिसने पौषध व्रतको स्वीकार किया है उसे सावधानी से देखे बिना शय्या अथवा आसनपर आरूढ़ नहीं होना चाहिए, इसी प्रकार बिना देखे या व्यग्रतासे देखकर पौषधशालाका सेवन नहीं करना चाहिए, दर्भवस्त्रको या शुद्ध वस्त्रको भूमिपर नहीं बिछाना चाहिए, कायिक भूमिसे आकर फिरसे देख लेना चाहिए । यहि वह ऐसा नहीं करता है तो स्वीकृत व्रत अतिचरित ( मलिन ) होनेवाला है । इसी प्रकार पोठ फलकादि ( चौकी आदि) के विषय में विकल्प करना चाहिए || ३२३ ॥
आगे उसके पांचवें अतिचारका निर्देश करते हुए उसे छोड़नेकी प्रेरणा की जाती हैइसी प्रकारसे विधिपूर्वक व्रतमें उद्युक्त हुए श्रावकको समस्त आहारादि विषयक पौषधके अननुपालनको सम्यक् प्रकारसे छोड़ देना चाहिए - प्रयत्नपूर्वक आगमोक्त विधिके अनुसार उसका परिपालन करना चाहिए ।
विवेचन - यहां टीका में 'एत्थ भावणा' ऐसा संकेत करते हुए कहा गया है कि जिस श्रावकने पौषध व्रतको स्वीकार किया है वह अस्थिर चित्त होकर आहार के विषय में सबकी अथवा एक देशी प्रार्थना करता है, दूसरे दिन अथवा पारणाके समय न स्वयं आदर करता है और न कराता है, यह करो, यह करो ऐसा बोलता भी नहीं है। वह शरीर के सत्कार में - उसके सुसज्जित करने में - प्रवृत्त नहीं होता, वह न शरीरका उपटन करता है और न शृंगार के अभिप्रायसे दाढ़ी, बाल और रोमोंको व्यवस्थित करता है, शरीर में दाह होनेपर - उष्णताको वेदना होनेपर - शरीरका सिंचन नहीं करता है; इस प्रकारसे वह शरीर के विभूषित करनेके सभी कारणोंको छोड़ता है । वह ब्रह्मचयंके पालन में उद्यत होकर इस लोक सम्बन्धी व परलोक सम्बन्धी भोगोंकी
१. अ कारावइ वा यम इमं चत्ति । २. अ संपाहेइ ।