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श्रावकप्रज्ञप्तिः
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प्राण्युपमर्द इति । स च स्वयं कृतोऽन्येन वा कारितः इति न कश्चित्फले विशेषः, प्रत्युत गुणः, स्वयं गमन ईर्यापथविशुद्धेः परस्य पुनरनिपुणत्वात्त शुद्धिरिति ॥ ३२० ॥ व्याख्यातं सातिचारं द्वितीयं शिक्षापदमधुना तृतीयमुच्यतेआहारपोसहो खलु सरीरसक्कारपोस हो चैव ।
भवावारेसु य तइयं सिक्खावयं नाम || ३२१॥
आहार पौषधः खलु शरीरसत्कारपौषधश्चैव ब्रह्माव्यापारयोश्चेति ब्रह्मचर्यं पौषधोऽव्यापारपौषधश्चेति । इह पौषधशब्दः रूढया पर्वसु वर्तते । पर्वाणि चाम्यादितिथयः, पूरणात्पर्व धर्मोपचहेतुत्वादिति । तत्राहारः प्रतीतः, तद्विषयस्तन्निमित्तो वा पौषधः आहारपौषधः । आहारादिनिवृत्तिनिमित्तं धर्मपूरणं पर्वेतिभावना' । एवं शरीरसत्कारपौषधः । ब्रह्मचर्यपौषधः - अत्र चरणीयं चर्यम् 'अतो यत्' इत्यस्मादधिकारात् 'गद-मद-चर-यमश्चानुपसर्गः' इति 'यत्' ब्रह्म कुशलानुष्ठानम् । यथोक्तम्- ब्रह्म वेदो ब्रह्म तपो ब्रह्म ज्ञानं च शाश्वतम्। ब्रह्मवत् चर्यं चेति समासः, शेषं पूर्ववत् । तथाव्यापारपौषधः तृतीयं शिक्षाव्रतं नामेति । सूचनात्सूत्रमिति न्यायात्तृतीयं शिक्षापदव्रतमिति ॥३२१॥
एतदेव विशेषेणाह -
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कंकड़ आदि फेंके जाते हैं, इसे पुद्गल क्षेप कहा जाता है। यह उसका पांचवां अतिचार है । ये पांचों अतिचार परित्याज्य हैं। देशावका शिकव्रतको इसलिए ग्रहण किया जाता है कि मर्यादित देश के बाहर न जाने से वहां स्थित जोवोंकों पीड़ा न पहुँचे । पर स्वीकृत क्षेत्रके बाहर स्वयं
कर कार्य किया या किसी दूसरे से कराया, इसमें कुछ अन्तर नहीं है । प्रत्युत इसके, दूसरों को भेज आदि की अपेक्षा स्वयंके जाने में यह एक विशेषता भी है कि वह ईर्यापथकी शुद्धिपूर्वक जायेगा जो प्राय: दूसरोंसे सम्भव नहीं है, क्योंकि वे उस प्रकारसे प्राणियों के संरक्षण में सावधान नहीं रह सकते || ३२०||
अब क्रमप्राप्त तीसरे शिक्षापदके स्वरूपका निर्देश किया जाता है
आहारपोषध, शरीरसत्कारपोषध, ब्रह्मचर्यपोषध और अव्यापारपोषध; इन सबका नाम तृतीय ( पोषध ) शिक्षापदव्रत है ।
विवेचन - यहाँ 'पौषध' शब्द पर्व के अर्थ में रूढ़ है । पर्वसे अभिप्राय अष्टमी व चतुर्दशी आदि धार्मिक तिथियों का है, क्योंकि इनके आश्रयसे धर्मकी पूर्ति ( उपचय ) हुआ करती है । आहारके निमित्तसे - उसके परित्याग ( अनशन आदि ) से जो धर्मका उपचय होता है उसे - आहार पौषध कहा जाता है। शरीरविषयक सत्कार – स्नान आदिसे उसके सुसज्जित करने के त्यागसे जो धर्मका संचय होता है उसका नाम शरीरसत्कारपोषध है । ब्रह्मवर्यपोषध से अभिप्राय कुशल अनुष्ठानका है। अमुक-अमुक व्यापारको में नहीं करूंगा, इस प्रकारके व्रतको अव्यापारपोषध समझना चाहिए ( गाथागत 'बंभव्वावारेसु' में ग्रन्थकारको व्यापारपोषध अभीष्ट है या अव्यापारपोषध, यह स्पष्ट नहीं है, टीकासे भी उसका कुछ स्पष्टीकरण नहीं होता ) । इस प्रकार के सब पौषधको यहां तीसरा शिक्षापदव्रत कहा गया है || ३२१||
आगे इसको कुछ विशेष रूपसे स्पष्ट किया जाता है
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अ धर्मपूरणं प्रवृर्तिभावना । २. अनुष्ठानां यथो ब्रह्म । ३. अ विशेषमाह ।