Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 207
________________ - २८१] प्रथमगुणवतप्ररूपणा १६५ तानि पुनस्त्रीणि भवन्ति । तद्यया-दिग्वतमुपभोगपरिभोगपरिमाणं अनर्थदण्डपरिवर्जनमिति । तत्राद्यगुणवतस्वरूपाभिधित्सयाह उड्ढमहे तिरियं पि य दिसासु परिमाणकरणमिह पढमं । भणियं गुणव्वयं खलु सावगधम्मम्मि वीरेण ॥२८॥ ऊर्ध्वमस्तिर्यक् । किम् ? दिक्षु परिमाणमिति । दिशो ह्यनेकप्रकारा वणिताः शास्त्रेतत्र सूर्योपलक्षिता पूर्वा, शेषाश्च दक्षिगादिकास्तदनुक्रमेण द्रष्टव्याः। तत्रोर्ध्वदिक्परिमाणमूर्ध्वदिग्वतम्-एतावती दिगूध्वं पर्वताद्यारोहणादवगाहनीया, न परत इति । एवंभूतमधोदिक्परिमाणं अधोदिग्व्रतम्-एतावत्यधोदिक् इन्द्रकूपाद्यवतरणादवगाहनीया, न परत इति । एवंभतं तिर्यगदिक्परिमाणकरणं तिर्यग्दिन्वतम् । एतावतो दिपूर्वेणावगाहनीया, एतावती दक्षिणेनेत्यादि; न परत इत्येवमात्मकम्, एतदित्थं त्रिधा दिक्षु परिमाणकरणम् । इह प्रवचने । प्रथममाद्यं सूत्रक्रमप्रामाण्यात् । गुणाय व्रतं गुणवम्, इत्यस्मिन् हि सत्यवगृहीतक्षेत्राबहिः स्थावर-जंगमप्राणिगोचरो दण्डः परित्यक्तो भवतीति गुणः। श्रावकधर्म इति श्रावकधर्मविषयमेव । केन भणितमिति आह वीरेण विदारयति यत्कर्म तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद्वीर इति स्मृतः ।। तेन इति चरमतीर्थकृता ॥२८०॥ गुणव्रतमित्युक्तमतो गुणदर्शनायाह, अथवा गुणव्रताकरणे दोषमाह तत्तायगोलकप्पो पमत्तजीवोऽनिवारियप्पसरो। सव्वत्थ किं न कुज्जा पावं तक्कारणाणुगओ ॥२८१॥ इसे दिग्व्रत कहा जाता है। उदाहरणार्थ उपरिम दिशाको लक्ष्य करके 'मैं पर्वत आदिके ऊपर इतनी दूर तक जाऊँगा, इससे आगे न जाऊँगा' इस प्रकारसे ऊर्ध्व दिशाका प्रमाण किया जाता है । इसी प्रकार अधोदिशामें 'मैं सुरंग, कुआं एवं कोयलेकी खदान आदिमें इतने नीचे तक जाऊँगा, उससे आगे न जाऊँगा' इस प्रकारसे अधोदिशाका प्रमाण किया जाता है। इसी प्रकारसे पूर्वादि दिशाओंके भी प्रमाणको करना चाहिए। इन सब दिशाओंमें यथासम्भव प्रमाणको करके जीवनपर्यन्त प्रयोजनके होते हुए भी उससे आगे न जानेपर प्रकृत दिग्व्रतका परिपालन होता है। इसके पालनसे नियमित प्रमाणके आगे न जानेसे वहां स-स्थावर जीवोंका संरक्षण होता है। यहाँ टोकाकारने किसी एक प्राचीन श्लोकको उद्धृत करके 'वीर'का इस प्रकारसे निरुक्तार्थ किया है-जो कर्मका विदारण करता है, तपसे विराजमान ( सुशोभित ) होता है, अथवा तपके सामर्थ्यसे युक्त होता है उसे 'वीर' माना गया है । यह अन्तिम तीर्थकरका सार्थक नाम है ॥२८०॥ आगे इस व्रतके परिपालनसे होनेवाले गुण (लाभ या उपकार) को अथवा उसके न पालनसे सम्भव दोषको दिखलाते हैं प्रमादसे युक्त जीव तपे हुए लोहेके गोलेके समान प्रमादके सामर्थ्यको न रोक सकनेके १. भ मि । २. अ अतोऽग्रे 'सत्यवगृहीतक्षेत्राबहिः'पर्यन्तः पाठस्त्वैवंविधोऽस्ति-गाहनीया एतावती दक्षिणेत्यादि न परतः इत्येवमात्मकं ती क्षेत्राबहिस्थावर। ३. अ गणश्रावकधर्मविषयमेव । ४. अ 'अथवा गुणवताकरणे दोषमाह' इत्येतावान् पाठो नास्ति । -

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