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-२८९] तृतीयगुणवतप्ररूपणा
१७३ पोसेइ, जहा गोल्लविसए जोणिपोसगा दासीण भणियं भाडि गेलंति । प्रदर्शनं चैतद्बहुसावद्यानां कर्मणामेवंजातीयानाम घाना कमणामवजातीयानाम्, न पुनः परिगणनमिति ॥२८॥ उक्तं सातिचारं द्वितीयं गुणवतम्, सांप्रतं तृतीयमाह
विरई अणत्थदंडे तच्च स चउव्विहो अवज्झाणो ।
पमायायरिय-हिंसप्पयास-पावोवएसे य ।।।।२८९।। ___विरतिनिवृत्तिरनर्थदण्डे अनर्थदण्डविषया इह लोकमप्यङ्गीकृत्य निःप्रयोजनभूतोपमर्दनिग्रहविषया तृतीयम्, गुणवतमिति गम्यते। स चतुर्विधः सोऽनर्थदण्डः चतुःप्रकारः। अपध्यान इति अपध्यानाचरितोऽप्रशस्तध्यानेनासेवितः । अत्र देवदत्तश्रावक-कोकणार्यकसाधुप्रभृतयो ज्ञापकम् । प्रमादाचरितो मद्यादिप्रमादेनासेवितः। अनर्थदण्डत्वं चास्योक्तशब्दार्थद्वारेण स्वबुद्धया भावनीयम् । हिंसाप्रदानं इह हिंसाहेतुत्वादायुधानल-विषादयो हिंसोच्यते, कारणे कार्योपचारात् । अन्य भी अनेक जीवोंका विनाश होता है। इसलिए यह कर्म भी निषिद्ध माना गया है। (१५) असतीपोष-भाड़ा ग्रहणकी इच्छासे असतीजन-दुराचारिणी स्त्रियोंका पोषण करना, जैसे गोल्ल देशमें योनिपोषक दासियोंको कथित भाडेके लिए ग्रहण किया करते हैं । सा. ध. ५-२२ की स्वो. टीयामें भाड़ा ग्रहण करने के लिए हिंसक प्राणियोंके पोषणको असतीपोष कहा गया है। इस प्रकार इन दो ( २८७-२८८) गाथाओंमें निर्दिष्ट पन्द्रह कर्मविषयक अतिचारोंका उपभोगपरिभोगपरिमाणवतीको परित्याग करना चाहिए। यहां जो केवल इन पन्द्रह कर्मोंका ही निषेध किया गया है उसे प्रदर्शन मात्र समझना चाहिए। कारण इसका यह है कि उक्त १५ कर्मों के अतिरिक्त अन्य कितने ही पापोत्पादक कर्म हैं, जिनकी गणना करना अशक्य है। इसलिए व्रती श्रावकको अपनी विवेकबुद्धिसे विचारकर यथायोग्य सावध कर्मोंका परित्याग करना योग्य है। लगभग यही अभिप्राय सागार धर्मामृत ( ५, २१-२३ ) में प्रकट किया गया है ॥२८७-२८८।।
आगे क्रमप्राप्त तोसरे गुणवतका स्वरूप कहा जाता है
अनर्थदण्डके विषयमें जो निवृत्ति की जाता है उसे अनर्थदण्डवत नामका तीसरा गुणवत कहा जाता है । वह चार प्रकारका है-अपध्यान, प्रमादाचरित; हिंसाप्रदान और पापोपदेश ।
विवेचन-अर्थ शब्द प्रयोजन और दण्ड शब्दका अर्थ पोड़न है। तदनुसार अनर्थ-प्रयोजनके बिना-जो जीवोंको पीड़ा पहुँचायी जाती है उसका नाम अनर्थदण्ड है । ऐसे अनर्थदण्डका परित्याग करना इसे अनर्थदण्डव्रत कहते हैं । उक्त गुणव्रतोंमें यह तीसरा है। वह अनर्थदण्ड चार प्रकारका है-अपध्यान, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान और पापोपदेश । (१) अपध्यान-आर्त-रोद्रस्वरूप दुष्टचिन्तनका नाम अपध्यान है। इस प्रकारके अपध्यानके वश होकर जो भी प्रवृत्ति की जाती है उसे अपध्यान ( अपध्यानाचरित) कहते हैं। इसमें देवदत्त श्रावक और कोंकण आर्यक साधुके दृष्टान्त प्रसिद्ध हैं । (२) प्रमादाचरित-मद्यादिजनित प्रमादके वश होकर जो प्राणियोंको पीड़ा पहुंचायी जाती है उसका नाम प्रमादाचरित है। रत्नकरण्डक (८०) में इसके लक्षणका निर्देश करते हुए कहा गया है कि पृथिवो, जल, अग्नि और वायुका निरर्थक आरम्भ करना तथा वनस्पतियोंका छेदना; इत्यादि कार्य जो बिना किसी प्रयोजनके किये जाते हैं उन्हें प्रमादचर्या या प्रमादाचरित कहा जाता है। निरर्थक हाथ-पांव आदिका व्यापार करना तथा हिंसक जीवोंका पालन करना इत्यादि कार्य भी इसी प्रमादचर्याके अन्तर्गत आते हैं। लगभग यही अभिप्राय १. अ श्रावककुंकरणाज्जकसाधु ।