Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 222
________________ १८० श्रावकप्रज्ञप्तिः सिक्खा दुविहा गाहा उववायइिगईकसाया य । बंधंता वेयंता पडिवज्जाइक्कमे पंच || २९५ ॥ शिक्षाकृतः साधु-श्रावकयोर्भेदः । सा च द्विविधा ग्रहणासेवनारूपेति वक्ष्यति । तथा गाथा भेदिका, सामाइयंमि जे कए इत्यादिरूपेति वक्ष्यत्येव । तथोपपातो भेदकः स्थितिर्भेदिका, गतिभेदिका, कषायाश्च भेदकाः, बन्धश्च भेदकः, वेदना भेदिकाः, प्रतिपत्तिर्भेदिका, अतिक्रमो भेदक इत्येतत् सर्वमेव प्रतिद्वारं स्वयमेव वक्ष्यति ग्रन्थकारः पञ्चाथवा कि चेति पाठान्तरार्थसहितमपि इति द्वारगाथा समुदायार्थः || २९५ ॥ अधुनाद्यद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाह - [ २९५ - गहणावणवा सिक्खा भिन्ना य साहु- सड्डाणं । पवयणमाईचउदस पुव्वता पठमिया जइयो ।। २९६ ॥ ग्रहणासेवनरूपा शिक्षति शिक्षाभ्यासः, सा द्विप्रकारा ग्रहणरूपासेवनरूपा च । भिन्ना चेयं साधु-श्रावकयोः अन्यथारूपा साधोरन्यथारूपा श्रावकस्येति । तथा चाष्टप्रवचनमात्रादिचतुर्दशपूर्वान्ता प्रथमा यते रति ग्रहणशिक्षामधिकृत्य साधुः सूत्रतोऽर्थतश्च जघन्येनाष्टौ प्रवचनमातरस्त्रिगुप्तिपञ्चसमितिरूपा उत्कृष्टतस्तु बिन्दुसारपर्यन्तानि चतुर्दशपूर्वाणि गृह्णातीति ॥ २९६ ॥ पवयणमाईछज्जीवणियता उभयओ वि इयरस्स । पिंडेसणा उ अत्थे इत्ता इयरं पवक्खामि ।। २९७॥ प्रवचनमातृषडुजीवनिकायान्ता उभयतोऽपि सूत्रतोऽर्थतश्चेतरस्य श्रावकस्य । पिण्डैषणार्थतः, न सूत्रत इति । एतदुक्तं भवति - श्रावकः सुत्रतोऽर्थतश्च जघन्येन ता एव प्रवचनमातर उत्कृष्टतस्तु षड्जीवनिकायं यावदुभयतः । अर्थतस्तु पिण्डेषणाम्, न तु तामपि सूत्रत इत्येतावद्गृह्णाति उक्ता ग्रहणशिक्षा, अत ऊर्ध्वमितरामासेवनशिक्षां प्रवक्ष्यामि यथासौ भेदिका एतयोरिति ॥ २९७॥ 3 ग्रहण और आसवनारूप दो प्रकारको शिक्षा, गाथा "सामाइयंमि उ कए" इत्यादि गाथा (२९९), उपपात, स्थिति, गति, कषाय, बन्ध, वेदना, प्रतिपत्ति और अतिक्रम; इन सबके द्वारा उक्त साधु और श्रावक इन दोनोंमे भेद किया जाता है । इन सब द्वारोंका विवचन - ग्रन्थकार आगे स्वयं क्रमसे करनवाल हैं । गाथामें टीकाकारने 'पंचाथवा' किंच ऐसा पाठान्तर सहित अर्थ भी सुझाया है (?) ||२९५|| आगे मुनको लक्ष्य करके ग्रहणरूप शिक्षाका निर्देश किया जाता है साधु और श्रावककी ग्रहण और आसेवनरूप शिक्षा ( अभ्यास ) भिन्न है । उनमें प्रवचनमातासे लेकर चौदह पूर्वं पर्यन्त यातको प्रथम ( ग्रहण ) शिक्षा है। अभिप्राय यह है कि साधु सूत्र और अर्थस कमसे कम तीन गुप्तियों और पाच समितियों रूप आठ प्रवचनमाताओं को ग्रहण करता है और अधिक से अधिक यह बिन्दुसार पर्यन्त चोदह पूर्वोको ग्रहण किया करता है || २९६ || अब श्रावकको लक्ष्य करके उक्त ग्रहणरूप प्रथम शिक्षाका निर्देश किया जाता है— इतर - साधुसे भिन्न श्रावक - उक्त प्रवचनमाताओको आदि लेकर छह जीवनिकाय पर्यन्त शिक्षाका सूत्र और अर्थ दोनोंसे ही ग्रहण करता है । किन्तु भिक्षा ग्रहणका विधिस्वरूप १. अ 'उ' नास्ति । २. अ सेवणभूया सिक्ता । ३. अ भेदिका तयोरिति ।

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