Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 228
________________ १८६ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३०९ - ते पुनरुपशान्तमोहादयस्तस्यैकविधस्य द्विसमयस्थितेरोर्यापथस्य बन्धकाः, न पुनः सांपरायिकस्य पुनर्भवहेतोरिति । शैलेशोप्रतिपन्ना अयोगिकेवलिनोऽबन्धका भवन्ति ज्ञातव्याः सर्वथा निदानाभावादिति द्वारम् ॥३०॥ तथा वेदना भेदिकेत्याह अट्ठण्हं सत्तण्हं चउण्हं वा वेयगो हवइ साहू । कम्मपयडीण इयरो नियमा अट्ठण्ड विन्नेओ ॥३०९॥ अष्टानां सप्तानां चतसृणां' वा वेदको भवति साधुः । कासां ? कर्मप्रकृतीनामिति । तत्राष्टानां यः कश्चित्, सप्तानामुपशान्त क्षीणमोहच्छद्मस्थ वीतरागो मोहनीयरहितानाम, चत. सृगामुत्पन्नकेवलो वेदनीय नाम गोत्रायूरूपाणाम् । इतरः श्रावको देशविरतिपरिणामवर्ती नियमा. दष्टानां विज्ञेयो वेदक इति द्वारम् ॥३०९॥ प्रतिपत्तिकृतो भेद इति अत्र आहे पंच महव्वय साहू इयरो इक्काइणुव्वए अहवा । सइ सामइयं साह पडिवज्जइ इत्तरं इयरो ॥३१०॥ पञ्चमहाव्रतानि प्राणातिपातादिविरमणादोनि संपूर्णान्येव साधुः प्रतिपद्यत इति योगः। इतरः श्रावकः एकादीनि अणुव्रतानि प्रतिपद्यत इत्येकं द्वे त्रीणि चत्वारि पञ्च चेति। अथवा सकृत्सामायिकं साधुः प्रतिपद्यते सर्वकालं च धारयति । इत्वरमितरः श्रावकोऽनेकशो न च सदा पालयतीति द्वारम् ॥३१०॥ उपर्युक्त उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगिकेवली ये दो समय स्थितिवाले एक वेदनीय कर्मके ईर्यापथबन्धक हैं। वे साम्परायिक-पुनर्जन्मके कारणभूत-उस वेदनीय कर्मके बन्धक नहीं हैं । अभिप्राय यह है कि इनके जो एक मात्र वेदनीय कर्मका बन्ध होता है वह भी दो समयकी स्थितिसे अधिक नहीं होता। शैलेशो-शैलेश ( सुमेरु पर्वत ) के समान स्थिरताको प्राप्त अयोगिकेवलियोंको अबन्धक जानना चाहिए-उनके उक्त आठ मूल प्रकृतियोंमें-से किसीका भी बन्ध नहीं होता है। इसीलिए यहां उन्हें प्रबन्धक कहा गया है ॥३०८।। अब क्रमप्राप्त वेदना ( उदय ) की अपेक्षा भी उन दोनोंमें भेद प्रकट किया जाता है साधु आठ, सात अथवा चार मूल कर्म प्रकृतिका वेदक होता है । परन्तु दूसरा ( श्रावक ) नियमसे आठों हो कर्मप्रकृतियोंका वेदक होता है, यह जानना चाहिए। विवेचन-साधुओंमें छठे प्रभत्तसंयनसे लेकर सूक्ष्मसाम्राय संयत तक आठों कर्मप्रकृतियोंके वेदक होते हैं । उपशान्तकषाय और क्षोणकषाय ये दो मोहनीयके बिना शेष सातके वेदक होते हैं। सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये चार घातिया कर्मोंसे रहित वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अघातिया कर्मों के वेदक होते हैं। परन्तु श्रावक सब ही नियमसे आठों मूल कमप्रकृतियोंके वेदक होते हैं ॥३०९|| आगे प्रतिपत्तिकी अपेक्षा उन दोनोंमें भेद दिखलाते हैं साधु पाँचों ही महाव्रतोंको स्वीकार करता है, परन्तु श्रावक एक आदि-एक, दो, तीन, चार अथवा पांवों हो–अणुव्रतोंको स्वीकार करता है। अथवा साधु एक हो बार सामायिक को १. अ चतिसणां। २. अ देश इति परिणाममिति नियमादष्टानां । ३. अ प्रतिपत्तयोग इत्यत आह ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306