Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 206
________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२७९ क्षेत्रादेरनन्तरोदितस्य तथा 'हिरण्यादेर्धनादेद्विपदादेः कुप्यस्य तथा आसन-शयनादेरुपस्करस्य । सम्यक् विशुद्धचित्तोऽनिर्मायाऽप्रमत्तः सन् न प्रमाणातिक्रमं कुर्यादिति ॥२७८॥ भाविज्ज य संतोसं गहियमियाणिं अजाणमाणेणं । थोवं पुणो न एवं गिलिस्सामोत्ति [न] चिंतिज्जा ॥२७९॥ भावयेच्च संतोषं किम् ? अनेन वस्तुना। परिगृहीतेन । तथा गृहीतमिदानीमजानानेन स्तोकमिच्छापारमाणमिति । पुन:वमन्यस्मिश्चतुर्मासके गृहीष्यामीति न चिन्तयेदतिचार एष इति गाथार्थः ॥२७॥ उक्तान्यणुव्रतानि सांप्रतमेषामेवाणुव्रतानां परिपालनाय भावनाभूतानि गुणवतान्यभिधीयन्ते। विवेचन-प्रकृत क्षेत्र आदिके प्रमाणको जिस रूपमे किया गया है उसका प्रमाद व विस्मरण आदिके वश उल्लंघन नहीं करना चाहिए, अन्यथा वे व्रतको मलिन करनेवाले अतिचार होते हैं । यहाँ क्षेत्रादिसे क्षेत्र-वास्तु, हिरण्यादिसे हिरण्य-सुवर्ण, धनादिसे धन-धान्य और द्विपदादिसे द्विपद-चतुष्पदोंका ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकारसे पांच अतिचार ये होते हैं जिनका परित्याग पांचवें अणुव्रती श्रावकको करना चाहिए-१ क्षेत्र-वास्तु प्रमाणातिक्रम, २ हिरण्य-सुवर्ण प्रमाणातिक्रम,३ धन-धान्य प्रमाणातिकम, ४ द्विपद-चतुष्पद प्रमाणातिक्रम और ५ कुप्यप्रमाणातिक्रम । यहां धनसे अभिप्राय गाय, भैंस, हाथी व घाड़ा आदि पशुधनका तथा धान्यसे गेहूं, जुवार व चावल आदिका रहा है । कुप्य शब्दस चांदी-सोनेको छोड़ शेष काँसा-पीतल आदि धातुओ एवं आसन, शयन व वस्त्र आदिको ग्रहण करना चाहिए ।।२७८॥ मागे प्रकृत परिग्रह पारमाण अणुव्रतीको गृहात प्रमाणसे सन्तोष करते हुए कैसा विचार नहीं करना चाहिए, इसे स्पष्ट किया जाता है - प्रमाणरूपम जिस वस्तुका ग्रहण किया गया है उससे सन्तोषको भावना भाना चाहिए। इसके अतिरिक्त 'मैंन बिना जान-समझे इस समय अल्प प्रमाणको ग्रहण किया है, अब आगे अन्य चातुमासमें इस प्रकारस अल्प प्रमाणका ग्रहण नहा करूंगा' इस प्रकारके विवारको नहीं करना चाहिए ॥२७९॥ इस प्रकार अणुव्रतोंकी प्ररूपणा करके उनके परिपालनके लिए भावनाभूत तीन गुणवतोंका निरूपण करते हुए उनमें दिग्वत गुणवतका स्वरूप दिखलाते हैंऊपरकी, नाचेकी और तिरछो इन तीन दिशाओम जो प्रमाण किया श्रावक धर्ममें वीर जिनेन्द्र के द्वारा प्रथम दिग्वत नामक गुणव्रत कहा गया है। विवेचन-शास्त्र में दिशाएं अनेक प्रकारको निर्दिष्ट की गयी हैं। उनमें पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर ये चार प्रमुख तिरछा दिशाएं हैं। इनमें जिस ओरसे सूर्य उदित होता है वह पूर्व दिशा कहलातो है। उसके प्रदाक्षण क्रमस शेष तान दिशाएं ये हैं-दक्षिण, पश्चिम और उत्तर । इनके मध्यम क्रमसे आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य और ईशान ये चार विदिशाएँ मानी गयी हैं। इस प्रकार तिरछो दिशाएं आठ हैं। इनमें एक ऊपरको और एक नीचेको इन दो दिशाओंके मिलनेसे दिशाएं दस हो जाती हैं। इनके विषयमें नियमित प्रमाणको करके उससे आगे न जाना-आना, १. म हिरण्यादेधान्यादेवि । २. अ अजणेणं । ३. अ एवं । गेलिस्सामीण चितिज्जा। ४. अमजानेन । ५. भ 'इति' नास्ति।

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