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१६८ श्रावकप्रशप्तिः
[२८४उक्तं सातिचारं प्रथमं गुणवतम्, अधुना द्वितीयमुच्यते
उवभोगपरिभोगे बीयं परिमाणकरणमो नेयं ।
अणियमियवाविदोसा न भवंति कयम्मि गुणभावो ॥२८४॥ ___ उपभोगपरिभोगयोरिति उपभोगपरिभोगविषये यत्परिमाणकरणं तदेव द्वितीयं गुणवतं विज्ञेयमिति पदघटना। पदार्थस्तु-उपभुज्यत इत्युपभोगः, अशनादिः, उपशब्दस्य सकृदर्थत्वात्सकृद्भुज्यत इत्यर्थः। परिभुज्यत इति परिभोगो वस्त्रादिः, पुनः पुनः भुज्यत इति भावः। परिशब्दस्याभ्यावृत्त्यर्थत्वादयं चात्मक्रियारूपोऽपि भावतो विषये उपचरितो विषय-विषयिणोरभेदोपचारात् । अन्तर्भोगो वा उपभोगः, उपशब्दस्यान्तर्वचनत्वात् । बहिर्भोगो वा परिभोगः, परिशब्दस्य बहिर्वाचकत्वात् । एतत्परिमाणकरणं एतावदिदं भोक्तव्यमुपभोक्तव्यं वा अतोऽन्यन्नेत्येवंरूपम । अस्मिन कृते गणमाह-अनियमिते असंकल्पिते ये व्यापिनस्तद्विषयं व्याप्तुं शीला दोषास्ते न भवन्ति कृतेऽस्मिस्तद्विरतेरिति गुणभावोऽयमत्र गुण इति ॥२८४॥ सांप्रतमुपभोगादिभेदमाह
सो दुविहो भोयणओ कम्मयओ चेव होइ नायव्यो ।
अइयारे वि य इत्थं वुच्छामि पुढो समासेणं ॥२८५॥ आता है तो ले लेना चाहिए। पर आज्ञाके अनुसार जानेपर उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसके विरुद्ध आचरण करनेपर व्रतको दूषित करनेवाला यह स्मृत्यन्तराधान नामका पांचवां अतिचार होता है, क्योंकि व्रत-नियमानुष्ठानका प्रमुख कारण स्मृति है, उसके भ्रष्ट होनेपर व्रत नियमसे मलिन होनेवाला है ॥२८३।।
आगे क्रमप्राप्त द्वितीय गुणवतका स्वरूप कहा जाता है
उपभोग और परिभोगके विषयमें जो प्रमाण किया जाता है उसे उपभोग-परिभोग प्रमाणव्रत नामक दूसरा गुणव्रत जानना चाहिए। उनके प्रमाणके कर लेनेपर अनियमित रूपसे व्याप्त होनेवाले दोष नहीं होते हैं, यह उसका गुण ( उपकार ) है।
विवेचन-'उपभुज्यते इति उपभोगः' इस निरुक्तिके अनुसार उपभोग शब्दका अर्थ एक बार भोगा जानेवाला पदार्थ होता है । जैसे-भोजन आदि, क्योंकि ये एक ही बार भोगे जा सकते हैं । 'परिभुज्यते इति परिभोगः' इस निरुक्तिके अनुसार 'परिभोग' का अर्थ बार-बार भोगा जानेवाला पदार्थ होता है। जैसे-वस्त्र आदि, क्योंकि उन्हें बार-बार भोगा जा सकता है। यद्यपि भोग और उपभोग क्रिया आत्मस्वरूप है तो भी यहां विषयमें विषयोके अभेदोपचारसे उनसे क्रमशः एक बार भोगे जानेवाले और बार-बार भोगे जानेवाले पदार्थों को ग्रहण करना चाहिए । अथवा उपभोग शब्दके अन्तर्वाची होनेसे उससे अन्तर्भोगको और परिभोग शब्दके बहिर्वाची होनेसे उससे बाह्य भोगको ग्रहण करना चाहिए। 'उनके विषय में मैं इतने प्रमाणमें उनका उपभोग और परिभोग करूंगा' इससे अधिकका नहीं करूँगा, इस प्रकारका प्रमाण करके उससे अधिक उपभोग-परिभोग- की इच्छा न करना, इसे उपभोग-परिभोग परिमाण गुणव्रत कहा जाता है। इस प्रकारका प्रमाण कर लेनेसे असीमित अवस्थामें जो दोष उत्पन्न हो सकते थे उनका उससे निरोध हो जाता था ॥२८४॥
आगे उपर्युक्त उपभोग और परिभोगके भेदोंका निर्देश किया जाता है
१. अ 'पि' नास्ति ।