Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 192
________________ १५० श्रावकप्रज्ञप्तिः [२५५ - अनिवृत्तेविषयः । सर्व एव भवति विज्ञेयः। पाठान्तरं योगत्रिकनिबन्धना निवृत्तिर्यस्मात्संगतार्थमेवेति ॥२५४॥ तथा चाह किं चिंतेइ न मणसा किं वायाए न जंपए पावं । न य इत्तो वि न बंधो ता विरई सव्वहा कुज्जा ॥२५५।। किं चिन्तयति न मनसा, अनिरुद्धत्वात्सर्वत्राप्रतिहतत्वात् तस्य । किं वाचा न जल्पति पापम्, तस्या अपि प्रायोऽनिरुद्धत्वादिति । न चातोऽपि योगद्वयव्यापारान्न बन्धः, किं तु बन्ध एव। यस्मादेवं तत्तस्माद्विरति सर्वथा कुर्यात् अविशेषेण कुर्यादित्यर्थः॥२५५॥ एवं मिच्छादंसणवियप्पवसओऽसमंजसं केई । जपंति जंपि अन्नं तं पि असारं मुंणेयव्वं ॥२५६॥ एवमुक्तप्रकारम् । मिथ्यादर्शनविकल्पसामर्थेन । असमंजसमघटमानकम् । केचन कुवादिनो जल्पन्ति याप्यन्यत्किचित्तदप्यसारं मुणितव्यमुक्तन्यायानुसारत एवेति ॥२५६॥ उक्तमानुषङ्गिकम्, अधुना प्रकृतमाह पडिवज्जिऊण य वयं तस्सइयारे जहाविहिं नाउं । संपुन्नपालणट्ठा परिहरियव्वा पयत्तेणं ॥२५७॥ सम्भव नहीं है उनका वह वध मन व वचनसे सम्भव है-मनसे उनके वधका चिन्तन किया जा सकता है तथा वचनसे वैसा सम्भाषण भी किया जा सकता है। अतएव सामान्यसे सब ही प्राणियोंके वधकी निवृत्ति करना योग्य है, ऐसा करनेसे परिणामोंमें निर्मलता अधिक हो रहनेवाली है । इस गाथामें टीकाकारके अनुसार 'पवित्तोओ' के स्थानमें 'निवित्तीओ' पाठान्तर भी पाया जाता है। तदनुसार गाथाका अभिप्राय यह होगा-निवृत्ति चूंकि तीनों योगोंके आश्रयसे हुआ करती है, इसलिए उसका विषय जब सब हो होती है तब नारक, देवादिके उस वधके विषय न होनेपर भी सामान्यसे सव ही प्राणियोंके वधकी निवत्ति करना योग्य है ॥२५४॥ आगे इसे ही स्पष्ट किया जाता है जीव क्या मनसे पापका विचार नहीं करता है ? करता ही है, क्योंकि उसकी सर्वत्र है । तथा वह क्या पापयक्त भाषण नहीं करता है? उसे भी वह करता है. क्योंकि उसे भी प्रायः रोका नहीं जा सकता है । तब वैसी परिस्थिति में उन दोनों के निमित्तसे बन्ध न होता हो, यह भो सम्भव नहीं है-उन दोनोंके निमित्तसे कर्मका बन्ध अवश्य होनेवाला है। इसलिए विरतिसावद्य योगका प्रत्याख्यान-सर्वथा ( सामान्यसे ) करना योग्य है ॥२५५|| इस प्रकार यहां कुछ वादियोंके अभिमतको दिखलाकर उसका निराकरण करते हुए अब उसका उपसंहार किया जाता है-- ___ इस प्रकार मिथ्यादर्शनजनित विचारके वश कितने वादो अन्य जो कुछ भी असमंजसयुक्ति व आगमसे असंगत-कथन करते हैं उसे भो निःसार समझना चाहिए ।।२५६।। इस प्रकार आनुसंगिक चर्चा करके अब प्रकृत विषयका विचार करते हैं २. विरत्ति।

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