Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 203
________________ - २७४ ] चतुर्थाणुव्रतप्ररूपणा इत्वरपरिगृहीतागमनं स्तोककालपरिगृहीतागमनम् , भाटीप्रदानेन कियन्तमपि कालं स्ववशीकृतवेश्यामैथुनासेवनमित्यर्थः ।१। अपरिगृहोतागमनं अपरिगृहीता नाम वेश्या अन्यसत्तागृहीतभाटी कुलाङ्गना वा अनाथेति, तद्गमनं यथाक्रमं स्वदारसंतोषवत्-परदारवजिनोरती चारः।। अनङ्गक्रीडा नाम कुच कक्षोरु-वदनान्तरक्रोडा, तीवकामाभिलाषेण वा परिसमाप्तसुरतस्याप्याहार्यैः स्थूलकादिभिर्योषिदवाच्यप्रदेशासेवनमिति । ३ । परविवाहकरणमन्यापत्यस्य कन्यफिललिप्सया स्नेहसंबन्धेन वा विवाहकरणम् । स्वापत्येष्वपि सङ्घयाभिग्रहो न्याय्य इति ।४। कामे तीव्राभिलाषश्चेति सूचनात्काम-भोगतीवाभिलाष:-कामा शब्दादयः, भोगा रसादयः, एतेषु तीव्राभिलाषः अत्यन्ततदध्यवसायित्वम् ।५। एतानि समाचरन्नतिचरति चतुर्थमणुव्रतमिति ॥२७३॥ वज्जिज्जा मोहकरं परजुवइदंसणाइ सवियारं । एए खु मयणबाणा चरित्तपाणे विणासंति ॥२७४॥ विवेचन-इन अतिचारोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-(१) इत्वरपरिगृहीतागमनइत्वरका अर्थ अल्पकाल होता है, भाड़ा देकर कुछ कालके लिए ग्रहण की गयी वेश्याको अपने अधीन करके उसके साथ मैथुन सेवन करना, यह ब्रह्मचर्याणुव्रतका इत्वर परिगृहोतागमन नामका प्रथम अतिचार है । यद्यपि वेश्या परस्त्री हो है, पर उसे भाड़ा देकर कुछ कालके लिए ग्रहण कर लिया गया है, इसलिए उसके साथ विषय-सेवन करनेसे चूंकि कथंचित् स्वस्त्रीको कल्पना की गयी है, पर वस्तुतः वह परस्त्री ही है, अतएव गृहीत व्रतके कथंचित् भंग और कथंचित् अभंग रहने के कारण इसे स्वदारसन्तोषव्रतोके लिए अतिचार समझना चाहिए। (२) अपरिगृहोता. गमन-अपरिगृहीता नाम वेश्याका है, क्योंकि वह दूसरेके द्वारा यथाविधि ग्रहण नहीं की गयी है। उसने किसी अन्यमें आसक्त होकर यदि उसमे भाडा ग्रहण नहीं किया है तो उसके साथ अथवा किसी अनाथ कुलांगनाके साथ विषय-सेवन करनेपर यह परदार परित्यागी अणुव्रतीके लिए अतिचार होता है, क्योंकि वह दसरेके द्वारा ग्रहण नहीं की गयी है, इसलिए भले ही उसे परस्त्री न समझा जाये, पर वस्तुतः वह परस्त्री हो है, अतः इसे व्रतके कथंचित् भंग व अभंगको अपेक्षा अतिचार समझना चाहिए । ( ३ ) अनंग-क्रीड़ा-कामसेवनके अंगोंसे भिन्न, स्तन, कांख, ऊरु और मुखके भीतर क्रीडा करना अथवा तीव्र कामविषयक अभिलाषासे सम्भोग-क्रियाके समाप्त हो जानेपर भी स्थूलकादिके द्वारा-लकड़ी, वस्त्र व फल आदिके द्वारा निर्मित जननेन्द्रियसेस्त्रीके अवाच्य प्रदेशका सेवन करना; इत्यादिको ब्रह्मचर्याणुव्रतका अनंगकोड़ा नामका तीसरा अतिचार जानना चाहिए। (४) परविवाहकरण-अपनी सन्तानको छोड़कर कन्याविषयक फलकी इच्छासे अथवा स्नेहके वश अन्यको सन्तानके विवाह करनेका नाम परविवाहकरण है। यह ब्रह्मचर्याणुव्रतका चौथा अतिचार है । ब्रह्मचर्याणुव्रतीको अपनो सन्तानके विषय में भी संख्याका नियम करना चाहिए। ( ५ ) कामतीव्राभिनिवेश-कामविषयक तीव्र अभिलाषाकी जो सूचना की गयी है उसमें कामसे शब्द आदिको और भोगसे रस आदि विषयोंको ग्रहण करना चाहिए। इन सबके विषयमें आसक्तिपूर्ण अतिशय प्रवृत्त रहना, यह उस ब्रह्मचर्याणुव्रतका पांचवां अतिचार है । इन अतिचारोंसे स्वीकृत व्रत मलिन होता है। विशेषके लिए देखिए तत्त्वार्थाधिगमकी टीका ७-२३, योगशास्त्रका स्वोपज्ञ विवरण ३-९४ और सागारधर्मामृतको स्वो. टीका ४-५८ आदि ।।२७३॥ १. भ 'स्तोककालपरिगहोतागमन' नास्ति । २१

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