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-२७०] चतुर्थाणुव्रतप्ररूपणा
१५९ ददाति, अधिकया' गृह्णाति । ४ । तथा तत्पतिरूपव्यवहरणं तेनाधिकृतेन प्रतिरूपं सदृशं तत्प्रतिरूपम्, तेन व्यवहरणम् -यद्यत्र घटते व्रोह्यादि घृतादिषु पली-वसादि तस्य तत्र प्रक्षेपण विक्रयस्तं च वर्जयेत् ।। यत एतानि समाचरन्नतिचरति ततीयाणवतमिति ॥२६८॥
उचियं मुत्तूण कलं दव्वाइकमागयं च उक्करिसं ।
निवडियमवि जाणंतो परस्स संतं न गिन्हिज्जा ।।२६९।। उचितां मुक्त्वा कलां पञ्चकशतवृद्धयादिलक्षणाम् । द्रव्यादिक्रमायातं चोत्कर्षम् यदि कथंचित्पूगफलादेः क्रय संवृत्त इत्यष्टगुणो लाभकः, अक्रूराभिसंधिना ग्राह्य एवेत्यर्थः । आदिशब्दः स्वभेदप्रख्यापकः। तथा निपतितमपि जानानः परस्य सत्कं न गृह्णीयात्, प्रयोजनान्तरं चोद्दिश्य समर्पिते प्रतिबुध्यतीत्यादि गृहीत्वा प्रत्यर्पयेदपोति ॥२६९॥ उक्तं तृतीयाणुव्रतम्, सांप्रतं चतुर्थमाहे
परदारपरिच्चाओ सदारसंतोस मो वि य चउत्थं ।
दुविहं परदारं खलु उराल-वेउविभेएणं ॥२७॥ सदृश होता है । अधिक मूल्यवाली विक्रेय वस्तुमें उसीकी जैसो अल्प मूल्यवालो वस्तुको मिलाकर बेचना, इसे प्रतिरूपक व्यवहार कहा जाता है। जैसे धानमें पलं जी आदिको मिलाकर और घोमें चर्बी आदिको बेचना। यह प्रकृत अचौर्याणुव्रतका पांचवां अतिचार है। अचौर्याणुव्रतीको इन पांचों अतिचारका परित्याग करना चाहिए, अन्यथा व्रत मलिन होनेवाला है ॥२६८॥
अचौर्याणुव्रतीको और कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसे भी आगे स्पष्ट किया जाता है
उसे उचित कलाको-पांच प्रतिशत आदि व्याजको-छोड़कर दूसरेके द्रव्यको नहीं लेना चाहिए, द्रव्यादिके क्रमसे आगत लाभको भी उत्कृष्ट नहीं ग्रहण करना चाहिए, तथा दूसरेकी गिरी हुई वस्तुको जानकर नहीं ग्रहण करना चाहिए।
विवेचन-अभिप्राय यह है कि यदि कभी किसीको प्रयोजनवश किसीसे रुपया-पैसा लेना पड़े तो उसे उचित ब्याजके साथ ही लेना चाहिए। यदि कभी सुपारी आदि क्रय-विक्रयमें विशेष लाभ हुआ तो उसे अभिमानके साथ ग्रहण नहीं करना चाहिए। अथवा कभी प्राकृतिक उपद्रवके कारण उक्त सुपारी आदि किन्हीं द्रव्योंके विनष्ट हो जानेपर आगे इसका संचय करनेसे अठगुणा लाभ हो सकता है, इस प्रकारके दृष्ट अभिप्रायसे उनका संचय करना व्रतको दुषित करनेवाला है। इसो प्रकार यदि कभी किसी व्यक्तिको कोई वस्तु गिर गयी हो तो उसे जानकर ग्रहण न करना चाहिए। हां, इस प्रयोजनसे कि जिसकी वह वस्तु है उसे खोजकर दे दूंगा, उसके ग्रहण करनेपर भी व्रत दूषित नहीं होता। पर उसे निश्चित ही उसके स्वामीको समर्पित कर देना चाहिए ॥२६९॥
अब क्रमप्राप्त चतुर्थ अणुव्रतके स्वरूपका निर्देश किया जाता है
परस्त्रीका परित्याग और स्वस्त्रीसन्तोष, इसका चतुर्थ अणुव्रत ( ब्रह्मचर्याणुव्रत) है। इनमें परस्त्री औदारिक और वैकियिकके भेदसे दो प्रकारको है। १. अ कुडवादित्कुत्रापि क्रमो न हि ताभ्यां तत्र तदागमन अधिकतया । २. भ तत्प्रतिरूपं च व्यवहरणं । ३. अ सदृशं तेन व्यवहरणं । ४. अ वेउवभेदेण ।