Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 194
________________ १५२ श्रावकज्ञप्तिः [ २५८नाम तालणं । अणटाए णिरवेक्खो निद्दयं तालेइ। साक्खो पुण पुव्वमेव भीयपरिसेण होयव्वं । जइ न करेज्ज तो मम्मं मोत्तुं ताहे लयाए दोरेण वा एक्कं दो तिन्नि वा वारे तालेइ । छविच्छेओ अणट्टाए तहेव, हिरवेक्खो हत्य-पाय-कन्न हो?-णक्काइ निद्दयाए छिदइ । सावेक्खो गंडं वा अरइयं वा छिदेज्ज वा दहेज्ज वा। अइभारो ण आरोवेयवो। पुवि चेव जा वाहणाए जीविया सा मुत्तव्वा। न होज्ज अन्ना जीविया, ताहे दुपदो जं सयं चेव उक्खिवइ उत्तारेइ वा भारं एवं वहाविज्जइ। बइल्लाणं जहा साभाविद्याओ वि भाराओ ऊणओ कोरइ। हल-सगडेसु वि वेलाए चेव मुंचई। आस-हत्थीसु वि एस चेव विही । भत्तपाणओच्छेओ ण कस्सइ कायवो तिक्खच्छुहो मा मरेज्ज तहेव अणटाए दोसा परिहरेज्जा। सावेक्खो पुण रोगनिमित्तं वा अकस्मात् आग वगैरह लगने या अन्य किसी उपद्रवके "उपस्थित होनेपर बन्धनबद्ध प्राणीका छटकारा पाना दुष्कर हो जाता है। अतः ऐसा निरपेक्ष सार्थक बन्धन सर्वथा हेय है। सापेक्ष सार्थक बन्धनमें प्राणीको इझ प्रकारको शिथिल गांठ आदि लगाकर बांधा जाता है कि जिससे कभी अग्नि वगैरहके प्रज्वलित होनेपर या अन्य किसी उपद्रवके उपस्थित होनेपर वह सरलतासे छूटकर या छुड़ाया जाजर आत्मरक्षा कर सकता है। यह सापेक्ष सार्थक बन्धन प्रयोजतके वश गाय-भैंस आदि चतुष्पदोंके समान दासी-दास, चोर व पढ़ने में आलसो पुत्र आदि द्विपदोंका भी किया जाता है। पर वह उनकी सुरक्षाका ध्यान रखकर दयाई अन्तःकरणसे विधेय माना गया है। विशेष रूपमें श्रावकको ऐसे ही द्विपदों व चतुष्पदोंको ग्रहण करना चाहिए जो बिना बन्धनके ही रह सकते हों। (२) दूसरा उसका अतिचार बध है। बधका अथं ताड़न है, न कि प्राणवियोजन, क्योंकि प्राणवियोजन तो स्पष्टत: अनाचार है, न कि अतिचार। पूर्वोक्त बन्धनके समान यह वध भी निरर्थक व सार्थकके साथ निरपेक्ष और सापेक्षके भेदसे दो प्रकारका है। निरतिचार अणवतका पालन करनेवाला गहस्थ कभी प्रयोजनके बिना प्राणीको लाठी चाबुक आदिसे पीड़ित नही ता। प्रयोजनके वश भी जब ताड़ित करना आवश्यक हो जाता है तब वह निरपेक्ष होकर निदयतापूर्वक ताड़ित नहीं करता। प्रथमत: तो वह भय दिखलाता है। पर जब भयसे काम नहीं निकलता तब वह मर्मस्थानको छोड़कर लता या रस्सी आदिसे दो-तीन बार ताड़ित करता है । (३) तीसरा अतिचार छविछेद है। छविका अर्थ शरीर है। उसका छेद भी निरर्थक व सार्थकके रूपमें सापेक्ष व निरपेक्ष दृष्टिसे किया जाता है। अणुव्रती श्रावक निष्प्रयोजन निरपेक्ष दृष्टिसे कभी प्राणीके हाथ, पांव, कान, ओष्ठ व नाक आदिका छेदन नहीं करता। प्रयोजनके वश भी वह उसके नाक, कान व फोड़े आदिको सापेक्ष होकर दयाभाव हो छेदता है या दागता है। (४) चौथा अतिचार अतिभारारोपण है। इस अतिचारसे रहित व्रती श्रावक मनुष्य या पशुके ऊपर अधिक बोझ नहीं लादता, वह उनके ऊपर उतना ही बोझा लादता है, जिसे मनुष्य स्वाभाविक रूप उठा सकें या रख सकें। सर्वोत्तम तो यही है कि जहां तक सम्भव हो व्रतो श्रावक भाडेसे की जानेवाली आजीविकाको हो छोड़ दे। पर यदि वह सम्भव नहीं है तो फिर उक्त रीतिसे अधिक बोझा न लादकर उनको शक्तिके अनुसार ही बोझा लादना चाहिए। इसो आदिके अपर भी अस्वाभिक बोझ नहीं लादना चाहिए तथा हलमें या गाड़ीमें जोतनेपर उन्हें यथासमय छोड़ देना चाहिए। यही प्रक्रिया हाथी व घोड़ा आदिके विषयमें समझना चाहिए। (१) पांचवां अतिचार भक्त-पानव्यच्छेद है। अन्न-पानका निरोध भी श्रावकको निष्प्रयोजन सर्वथा नहीं करना चाहिए। प्रयोजनके वश भी द्विपद या चतुष्पदोंके भोजन-पानका निरोध कुछ हो समयके लिए करना चाहिए, जिसमें उन्हें अधिक व्याकुलताका अनुभव न हो या भूख-प्याससे

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