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- १८८] वधासम्भवत्ववादिनामभिमनिरासः
११७ बुद्धिप्रतिबिम्बोदयरूपोऽपि भोगो न युज्यते, अमूर्तस्य प्रतिबिम्बाभावात् । भावेऽपि मुक्तादिभिरतिप्रसङ्गः। न च सन्निहितमपि किंचिदेव प्रतिबिम्ब्यते न सर्व तत्स्वभावमिति, विशेषहेत्वभावात् । अलं प्रसङ्गेन ॥१८॥ किं च
न य चेयणा वि अणुभवसिद्धा देहमि पावई एवं । ... तीए विरहंमि दढं सुहदुक्खाई ने जुज्जति ॥१८८॥
न च चेतनापि अनुभवसिद्धा स्पृष्टोपलब्धिद्वारेण देहे प्राप्नोति । एवमेकान्तभेदे सति । न हि घटे काष्ठादिना स्पृष्टे चैतन्यम्, वेद्यते च देह इति । तस्याश्चेतनाया विरहे चाभावे च । दृढमत्यर्थम् । सुख-दुःखादयो न युज्यन्ते, न हि पाषाणप्रतिमायां सुखादयोऽचेतनत्वादिति ॥१८॥ शरीरके आश्रयसे किये गये कर्मका फल देवदत्तको ही भोगना पड़े और जिनदत्तको नहीं भोगना पड़े, यह नियमव्यवस्था कैसे रह सकती है ? उपर्युक्त मान्यतामें वह सब प्रचलित नियमव्यवस्था भंग हो सकती है। कारण यह कि पुरुषसे सर्वथा भिन्न उस प्रकृतिका उसके साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं माना गया । तब वेसी अवस्थामें वह स्वयं अचेतन होनेसे कुछ कर भी कैसे सकतो है ? लोकमें अचेतन ( जड़) वस्तुओंमें जो क्रिया देखी जाती है वह किसो चेतनकी प्रेरणासे ही देखी जाती है। जैसे- रेल व मोटर आदिमें। यदि कहा जाये कि वह प्रकृति भी चेतन पुरुषको प्रेरणा पा करके कार्यको करती है, सो यह कहना भो ठोक नहीं है, क्योंकि सांख्य मतानुसार पुरुष उदासीन व सर्वथा एक ही स्वभाववाला है, उसके स्वभावमें परिणमन कुछ होता नहीं है और उस परिणमनके बिना प्रेरणा करना असम्भव है। अन्यथा, उसके अनित्यताका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होनेवाला है। उसके अतिरिक्त पुरुष जब प्रकृतिसे सर्वथा भिन्न है तब अमूर्तिक होनेसे वह शरीरके बिना भोक्ता भी कैसे हो सकता है ? शरीरके बिना वह भोग भी नहीं कर सकता है। यदि कहा जाये कि बुद्धिके प्रतिबिम्बका जो उदय है वही पुरुषका भोग है तो यह कहना भी असंगत होगा। कारण यह कि प्रतिबिम्बका मूर्तिक दर्पण आदिपर ही पड़ना सम्भव है, न कि अमूर्तिक उस पुरुषपर। यदि अमूर्तिक पर भी प्रतिबिम्ब माना जाता है तो फिर अमूर्तिक मुक्त जीवोंमें भी उक्त प्रतिबिम्बकी सम्भावना रहनेसे उन्हें भी भोक्ता मानना पड़ेगा। समीपस्थ होनेपर भी किसीके ऊपर प्रतिबिम्ब पड़े और किसीके ऊपर वह न पड़े, यह नियमव्यवस्था कैसे बन सकती है ? नहीं बन सकती, क्योंकि उसका नियामक कोई विशेष हेतु नहीं है ।।१८७।।
जीवसे शरीरके सर्वथा भिन्न होनेपर उसमें चेतना व सुख-दुःख आदि भी सम्भव नहीं है
इस प्रकारसे शरीरसे जीवते. सर्वथा भिन्न होनेपर--अनुभवसिद्ध चेतना भी शरीरमें नहीं प्राप्त होती। तथा उस चेतनाके अभावमें सूख-दुख आदि भी सर्वथा नहीं हो सकते
विवेचन-यह अनुभवसिद्ध है कि शरीरके कोमल गादी आदिका स्पर्श होनेपर सखका अनुभव तथा तीक्ष्ण कांटे आदिका स्पर्श होनेपर दुखका अनुभव होता है। परन्तु जब शरीरको आत्मासे सर्वथा भिन्न माना जाता है तब आत्मासे भिन्न उस शरीरके चेतनासे रहित होनेके कारण उक्त गादी आदि अथवा कांटे आदिका स्पर्श होनेपर भी सुख-दुखका वेदन नहीं होना चाहिए, जिस प्रकार कि जड़ घटके कोमल या कठोर किसी वस्तुका स्पर्श होनेपर उसे सुख-दुखका वेदन नहीं हुआ करता है। पाषाण निर्मित मनुष्यको मूर्ति में भी अचेतन होनेसे कभी सुख-दुखका १. भ सुहदुहादा ण । १. भ तस्या चेतनाया। ३. म°थं सुहृदुहादयो न युज्यते ।