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- २१२] कर्मायत्तस्य वधकस्य नास्त्यपराध इत्येतन्निराकरणम्
यदि तेन व्यापाछैन। तथा तेन प्रकारेण अस्मान्मतव्यमित्यादिलक्षणेन । अकृते अनुपाते, कर्मणीति गम्यते। तं व्यापाद्यम । हन्ति व्यापादयति । तको वधकः। स्वतन्त्रभावेन स्वयमेव कथंचित् । अत्र दोषमाह-अन्यमपि देवदत्तादिकम् । कि न एवं हन्ति यथा तम्, निमित्ताभावस्या. विशेषात् । अनिवारितप्रसरः स्वातन्त्र्येण व्यापादनशील इति ॥२१॥
न ये सव्वो सव्वं चिय वहेइ निययस्सभावओ अह ने ।
वज्झस्स अफलकम्मं वहगसहावेण मरणाओ' ॥२१२॥ न च सर्वो व्यापदकः । सर्वमेव व्यापाद्यं हन्ति, अदर्शनात् । नियतस्वभावतोऽथ न अथैवं मन्यसे नियतहन्तस्वभावात् न सर्वान् हन्तीत्येतदाशङ्कयाह-वध्यस्य व्यापाद्यस्याफलं कर्म । कुतो वधकस्वभावेन मरणात् । यो हि यद्वयापादनस्वभावः स तं व्यापादयतीति निःफलं कर्मापद्यते। न चैतदेवम् । तस्मात्तस्यैवासौ दोषो यत्तथा कर्म कृतमनेनेति। वधकोऽनपराध इति एष पूर्वपक्षः ॥२१२॥
वध्यमान प्राणीके द्वारा उस प्रकारके कर्मके न किये जानेपर भी यदि वह स्वतन्त्रतासे उसे मारता है तो फिर वैसी अवस्थामें वह उस प्रकारसे अन्य भी किसी प्राणोको बिना रुकावटके ( स्वतन्त्रतासे ) क्यों नहीं मारता है ? अन्य किसी भी प्राणीको मार सकता था ॥२११॥
पर सब ( वधक) सभीका वध नहीं करते हैं। इसपर यदि यह कहा जाये कि नियत स्वभाववाले होनेसे सब वधक सबको नहीं मारते हैं, नियत प्राणीको ही मारते हैं तो वैसी अवस्थामें वध्य ( मारे जानेवाले) प्राणीका वह कर्म निष्फल हो जायेगा, क्योंकि वह वधकके स्वभावसे मरणको प्राप्त होता है, न कि स्वकृत कर्मके प्रभावसे ॥२१२॥
विवेचन-इन वादियोंका अभिप्राय यह है कि जिस जीवने जिस प्रकारके कर्मको किया है उसे उस कर्मके विपाकके अनुसार उसके फलको भोगना ही पड़ता है। वध करनेवाला प्राणी तो उसके इस वधमें निमित्त मात्र होता है। वह भी इसलिए कि उसने 'मैं इसके निमित्तमे मरूंगा' ऐसे ही कर्मको उपाजित किया है। इस प्रकार वध करनेवालेको जब उसके हो कर्मके अनुसार उसके वधमें सहकारी होना पड़ता है तब भला इसमें उस बेचारे वधकका कोन-सा अपराध है ? उसका कुछ भी अपराध नहीं है। कारण यह कि वध्यमान प्राणीने न वैसा कर्म किया होता न उसके हाथों मरना पड़ता। प्रकृत वादियोंके द्वारा अपने उपर्युक्त अभिमतको पुष्ट करते हुए कहा जाता है कि मरनेवाले प्राणीने यदि 'मैं अमुकके निमित्तसे मरूंगा' इस प्रकारके कर्मको नहीं किया हैं तो फिर जब वधक इस वधकार्य में स्वतन्त्र है तब क्या कारण है जो वह उसी प्राणीको तो मारता है और अन्य प्राणीको नहीं मारता है। परन्तु यह प्रत्यक्षमें देखा जाता है कि सब सभी प्राणियोंको नहीं मारते हैं, किन्तु वधक किसी विशेष प्राणीका हो वध करता है, अन्यका नहों। इससे सिद्ध होता है कि जिसने अमुक प्राणोके द्वारा मारे जानेपर कर्मको बांधा है वही उसके द्वारा मारा जाता है, अन्य नहीं मारा जाता। इसपर यदि प्रतिवादी यह कहे कि वधक अपने नियत स्वभावके अनुसार विवक्षित प्राणोका ही वध करता है, अन्यका वध वह नहीं करता है, सो यह भी युक्तिसंगत नहीं है। कारण यह है कि वैसा माननेपर मारे जानेवाले प्राणोका वह कम निरर्थक सिद्ध होगा। इसका भी कारण यह है कि प्रतिवादीके उक्त अभिमतके अनुसार वह अपने द्वारा उपाजित कर्मके उदयसे तो नहीं मारा गया, किन्तु वधकके नियत स्वभावके अनुसार मारा
१. अ णहि । २. अ भावओ अणहो । ३. अ सहावेण परमाउ ।
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