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वधविषयाणामेव वधनिवृत्तियुक्ता इत्येतन्निराकरणम्
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सांप्रतमन्यद्वादस्थानकम्- संभवई वहो जेसिं जुज्जइ तेसिं निवित्तिकरणं पि ।
आवडियाकरणमि य सत्तिनिरोहा फलं तत्थ ॥२३॥ संभवति वधो येषु कृमि-पिपीलिकादिषु। युज्यते तेषु निवृत्तिकरणमपि, विषयाप्रवृत्तः । आपतिताकरणे च पर्युपस्थितानासेवने च सति । शक्तिनिरोधात्फलं तत्र, युज्यत इति वर्तते। अविषयशक्त्यभावयोस्तु कुतः फलमिति ॥२३॥ तथा चाह
नो अविसए पवित्ती तन्निवित्तिइ अचरणपाणिस्स ।
झसनायधम्मतुल्लं ततथ फलमबहुमयं केइ ।।२३६।। नोऽविषये नारकादौ। प्रवृत्तिर्वधक्रियायाः। ततश्च तन्निवृत्त्या अविषयप्रवृत्तिनिवृत्त्या। अचरणपाणेः छिन्नगोदुकरस्य झषज्ञातधर्मतुल्यं छिन्नगोदुकरस्य मत्स्यनाशे धर्म इत्येवं कल्पम् । तत्र निवृत्तौ। फलं' अबहुमतं विदुषामश्लाघ्यं केचन मन्यन्त इत्येष पूर्वपक्षः ॥२३६॥ परिणाम विशेषके अनुसार हुआ करतो है—याद वधकर्ताका परिणाम अतिशय संक्लिष्ट है तो उसमें अधिक पाप होगा और उसका परिणाम मन्द संक्लेशरूप है तो पाप कम होगा। गाथामें जो 'प्रायः' शब्दको ग्रहण किया गया है उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि किसो तपस्वी अथवा लोकोपकारक गुणो पुरुषका वध किया जाता है तो उससे प्रचुर मात्रामें पापका बन्ध होनेवाला है और यदि किसी साधारण प्राणीका वध किया जाता है तो उस गुणी जनके वधको अपेक्षा इसमें कम पापका बन्ध होगा ॥२३४॥
आगे अन्य वादियोंके अभिमतको प्रकट किया जाता है
किन्हीं वादियोंका कहना है कि जिन प्राणियोका वध सम्भव है उनके वधविषयक निवृत्ति. का कराना योग्य है, क्योंकि आपतितके न करने में उपस्थितका सेवन न करनेपर-शक्तिका निरोध होता है, अतः उसका वहाँ फल सम्भव है ।।२३५||
आगे इसीका स्पष्टीकरण किया जाता है
जो नारक व देव आदि वधके विषय नहीं हैं उनके वधमें चूंकि प्रवृत्ति सम्भव नहीं है, अतएव उनके वधकी निवृत्तिसे सम्भाव्य फल हाथ-पांवसे रहित प्राणीके मछलोके वधको निवृत्तिसे होनेवाले धर्मके उदाहरणके समान बहुतोंको सम्मत नहीं है।
विवेचन-किन्हीं वादियोंका अभिमत है जिन चींटी आदि क्षुद्र जन्तुओं अथवा हिरण व कबूतर आदि पशु-पक्षियोंके वधको सम्भावना है उनके वधको निवृत्ति कराना उचित है। कारण यह कि उनके वधका अवसर प्राप्त होनपर उस वधसे निवृत्त हुआ पुरुष अपनी उस वधशक्तिको रोककर उनके वधसे विमुख रहता है, अतः उसका फल उसे अवश्य प्राप्त होनेवाला है। किन्तु जो नारक व देव आदि उस वधके विषयभूत नहीं हैं उनके वधको निवृत्ति कराना उचित नहीं है, क्योंकि उनके वधकी निवृत्तिसे कुछ फलको प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसका भी कारण यह है कि
१. असंभवउ । २. अ किरणंमि य सत्त सत्तणिरोहा। . अ करणमविषयाप्रवृत्ते सपतिता। ४. अणा अणविषये पवत्तीय मिव्वत्ती अचरण । ५. अ अचलनप्राणाः छिन्नगोदुरकरस्य । ६. अ छिन्नगोधुकरस्य मत्स्यमाशे मत्स्यनिवृत्ती धर्म इत्येवं फलं ।