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- २५० वधविषयाणामेव वधनिवृत्तियुक्ता इत्येतन्निराकरणम्
येषां पुरुषाणाम् । मिथः परस्परम् । कुलवैरमन्वयासंखटम् । अप्रतिविरतेः कारणात् । तेषाम् अन्योन्यं परस्परम् । वधक्रियाभावेऽपि सति न तत्स्वयमेवोपशाम्यति किं तूपमितं सदिति ॥२४९॥
तत्तो य तन्निमित्त इह बंधणमाइ जहं तहा बंधो।
सव्वेसु नाभिसंधी जह तेसुं तस्स तो नत्थि ॥२५०॥ ततश्च तस्मादनुपशमात् । तन्निमित्तं वैरनिबन्धनमिह बन्धनादि बन्धवधादि यथा भवति तेषां तथेतरेषामनिवृत्तानां तन्निबन्धनो बन्ध इति । अत्राह-सर्वेषु प्राणिषु । नाभिसंधि
विवेचन-अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार परस्पर वैरके वशीभूत हुए दो कुटुम्बोंमें एक दूसरेका घात तो करना चाहते हैं, पर तदनुकूल अवसर न मिलनेसे उनमें कोई किसीका चात नहीं कर पाता है। फिर भी जबतक उनका वह वैरभाव शान्त नहीं हो जाता है तबतक वे एक दूसरेके अनिष्टका चिन्तन किया ही करते हैं। इससे वे निरन्तर संक्लिष्ट परिणामके वशीभूत होने. से पाप कर्मको बांधते ही रहते हैं। ठोक इसो प्रकारसे गृहस्थ जबतक हिंसादि पापोंका परित्याग नहीं करता है तबतक वह उनसे निवृत्त न होनेके कारण समय आनेपर वह हिंसादि पापोंमें प्रवृत्त भी हो सकता है । अतः कर्मबन्धके कारणभूत संक्लेश परिणामसे बचाने के लिए उन हिंसादि
करना ही श्रेयस्कर है। प्राणाके प्राणोंका विधात करना ही हिसा नहीं है, किन्तु जैसा कि ऊपर निर्देश किया जा चुका है उसके विषय में राग-द्वेषादि रूप परिणामोंका बना रहना ही वस्तुतः हिंसाका लक्षण है। आचार्य अमृतचन्द्रने अहिंसा और हिंसाका लक्षण इसी . प्रकारका निर्दिष्ट किया है। यथा---
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति ।
तेषामवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य सक्षेपः । पु. सि, ४४ ॥ अर्थात राग-द्वेषादि परिणामोंके उत्पन्न न हान देनका नाम अहिंसा और उन्ही की उत्पत्ति का नाम हिंसा है। संक्षेपमें यह परमागमका रहस्य है ॥२४९।।
आगे उस कुलादि वेरका क्या परिणाम होता है, इसे स्पष्ट करते हुए वादोके द्वारा फिरसे को गयो शंकाको व्यक्त करते हैं
उक्त कुलादि वैरके स्वयं शान्त न होनेसे उसके निमित्तसे यहां जिस प्रकार उनके वधबन्धन आदि होते हैं उसी प्रकार पापकी निवृत्तिसे रहित जीवोंके संश्लेश परिणामके निमित्तसे कर्मका बन्ध हुआ करता है। यहां वादो पुनः माशंका करता है कि जिस प्रकार जिन दो कुलों में वैरभाव होता है उन्हींके मध्यमें परस्पर दुष्ट अभिप्राय रहता है, न कि सभी जीवोंके विषयमें, अतः उतने मात्र आश्रय ही उनके बन्ध सम्भव है । इसी प्रकार प्रत्याख्यान करनेवाले जीवके भी समस्त प्राणियोंके आश्रयसे बन्ध नहीं होता है, किन्तु वध करने योग्य जिन प्राणियोंके वध. विषयक निवृत्ति नहीं को गयो है मात्र उनके आश्रयसे ही बन्ध सम्भव है।
विवेचन-यहाँ ऊपर दिये गये कुलवैरके आश्रयसे वादी अपना अभिमत प्रकट करते हुए कहता है कि जिस कुलके मनुष्योंसे दूसरे कुलके मनुष्योंमें वैरभाव हैं वे केवल उसो कुलके मनुष्यों१. अ तन्निमित्तो वहबंधणमाति नह । २. भ एसि । ३. भ मिह बंधवधादियथा भवति तथा ( अतोऽग्रेऽत्र पूर्वगाथा २४९ गत 'वधकिरियाभावंमि' इत्यादिसंदर्भोऽग्रिमगाथा २५० गत 'सव्वेसु नाभि' पर्यन्तः पुनलिखितोऽस्ति । तदने च 'किंतु' लिखित्वा 'वैरिद्रंगनिवासिनामेव' प्रभृतिरग्निमसंदर्भो लिखितोऽस्ति ।
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