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श्रावकप्रज्ञप्तिः
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यज्जातीय एव हतः स्यात् कृम्यादिस्तज्जातीयेषु संभवस्तस्य वधस्य । अतस्तेषु सफला निवृत्तिः, सविषयत्वादिति एतदाशङ्कयाह-न युक्तमेतदपि, व्यभिचारात् ॥ २४०॥
व्यभिचारमेवाह
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वाइज्जइ कोई हए वि मनुयंमि अन्नमणुणं ।
अहए वि य सीहाओ दीसइ वहणं पि वभिचारा ॥ २४९ ॥
व्यापाद्यते कश्चिदेव हतेऽपि मनुष्ये सकृत् अन्यमनुष्येण, तथा लोके दर्शनात् । अतो यज्जातीयस्तु हतस्तज्जातीयेषु संभवस्तस्येति नैकान्तः, तेनैव अन्यमनुष्येणैव व्यापादनात् । तथा अहतेऽपि च सिंहादौ आजन्म दृश्यते हननं कादाचित्कमिति व्यभिचार इति ॥२४१ ॥ नियमो न संभवो इह हंतव्वा किं तु सत्तिमित्तं तु । सा जेण कज्जगम्मा तयभावे किं न सेसेसु ॥ २४२॥
जिस जातिका प्राणी मारा जा चुका है उस जातिके प्राणियों में उस वधकी सम्भावना है, अतः ऐसे प्राणियों के वधकी निवृत्ति सफल हो रहती है । यह भी वादोका कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उसमें व्यभिचार ( दोष ) सम्भव है ॥२४०||
आगे उसी व्यभिचारको दिखलाया जाता है
मनुष्य के मारे जानेपर कोई प्राणी अन्य मनुष्यके द्वारा मारा जाता है। तथा सिंहादिके न मारे जानेपर भी उनका मारा जाना देखा जाता है, इससे इस पक्ष में व्यभिचार सम्भव है । विवेचन-वादीका अभिप्राय यह है कि किसी मनुष्यके द्वारा एक मृगका वध करनेपर यह ज्ञात हो जाता है कि मृगजातिके सभी प्राणी मनुष्यके द्वारा वध्य हैं, अतः उसे मृगोंके वधको जब निवृत्ति करायी जाती है तो वह सफल ही रहती है, ऐसी अवस्था में उसे निष्फल कहना उचित नहीं, वादीके इस कथन में यहाँ दोष दिखलाते हुए यह कहा गया है कि वादीका वैसा कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उसमें व्यभिचार ( अनैकान्तिकता ) देखा जाता है । जैसे— किसी सर्पने मनुष्यको डंस लिया, जिससे वह मरणको प्राप्त हो गया । इसे देखते हुए भी यह नियम नहीं बन सकता कि सर्प मनुष्य जातिके सभी प्राणियोंका वध कर सकता है, क्योंकि अन्य मनुष्य के द्वारा उस सपका भी मारा जाना देखा जाता है । इसके अतिरिक्त किसीने कभी सिंहका वध नहीं किया था, पर अन्तमें कभी उसके द्वारा सिंहका वध करते भी देखा जाता है । इससे यह नियम नहीं बन सकता कि सिंह मनुष्य के द्वारा अवध्य है । इस कारण वादीका यह कहना कि जिस जातिका प्राणी मारा गया है उस जाति के सभी प्राणो उसके द्वारा वध्य हैं, युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उस प्रकार के नियममें ऊपर दोष दिखलाया जा चुका है ॥२४०-२४१॥
आगे वादीके द्वारा प्रकट किये जानेवाले 'सम्भव' के अन्य अभिप्रायका भी निराकरण किया जाता है
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वादी कहता है कि उस जाति के सभी वध्य हैं, ऐसे नियमका नाम सम्भव नहीं है, किन्तु व की शक्ति मात्रका नाम सम्भव है । इस अभिप्रायका भो निराकरण करते हुए कहा गया है कि यह कहना भी योग्य नहीं है, क्योंकि वह शक्ति कार्यके होनेपर ही जानी जा सकती है । यदि कहो कि वरूप कार्यके बिना भी उस शक्तिका बोध हो सकता है तो उस अवस्था में शेष प्राणियों
१. अति । २. अ केश्चित् हते पि मनुष्येण तथा ।