Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 175
________________ - २२२] बालादिवविषयकदुरभिप्रायनिराकरणम् १३३ अकृतागमकृतनाशौ-तेनाकृतमपि तस्य प्रतिबन्धकमित्यकृतागमः, शुभपरिणामभावेऽपि च ततः प्रतिबन्धात्तत्फलमिति' कृतनाशः । स्वपरैकत्वं च प्रतिबन्धकाविशेषात् प्राप्नोत्येवं तच्चरणत एव । ततः क्षयोऽप्यनिवारितप्रसरस्तस्येत्युपसंहरन्नाह ॥२१९॥ एवंपि य वहविरई कायव्वा चेव सव्वजत्तेणं । तदभावंमि पमाया बंधो भणिओ जिणिंदेहिं ॥२२०॥ एवमपि चोक्तप्रकाराद। वधविरतिः कर्तव्यैव सर्वयत्नेनाप्रमादेनेत्यर्थः। तवभावे व विरत्यभावे च। प्रमादादबन्धो भणितो जिनेन्द्ररिति ॥२२०॥ इदानीमन्यद्वादस्थानकम् केइ बालाइवहे बहुतरकम्मस्सुवक्कमाउ त्ति । मन्नंति पावमहियं बुड्ढाईसुं विवज्जासं ॥२२१॥ केचिद्वादिनो बालादिवधे बाल-कुमार-युवव्यापादने। बहुतरकर्मण उपक्रमणात्कारणान्मन्यन्ते पापमधिकम् । वृद्धादिषु विपर्यासं, स्तोकतरस्य कर्मण उपक्रमादिति ॥२२१॥ अत्रोत्तरमाह एयं पि न जुत्तिखमं जं परिणामाउ पावमिह वुत्तं । दव्वाइभेयभिन्ना तह हिंसा वनिया समए ॥२२२॥ विवेचन-इसके अतिरिक्त उक्त मान्यताके अनुसार वधकने चारित्रके रोधक जिस कर्मको नहीं किया है वह उसका रोधक हो जाता है, अतः अकृताभ्यागम दोषका प्रसंग प्राप्त होता है। साथ हो उसने चारित्रके उत्पादक शुभ परिणामको तो किया है, पर वध्यके द्वारा किये गये कर्मके प्रभावसे उसके चारित्रका प्रादुर्भाव हो नहीं सका अतः 'कृतनाश' दोष भी प्रसक्त होता है । इस प्रकार वध्य और वधकमें विशेषता न रहने से दोनों में अभेद प्राप्त होता है। और जब दोनों में भिन्नता न रही तब उसके चारित्रसे कर्मक्षय के प्रसारको भी नहीं रोका जा सकता है ।।२१९॥ अब इस प्रकरणका उपसंहार किया जाता है इस प्रकार-वादाके द्वारा वधविरतिमें प्रदर्शित दोषोंका निराकरण हो जानेपर-पूर्ण प्रयत्नके साथ उस वधकी विरतिको करना हो चाहिए । कारण यह कि उक्त वधविरतिके अभाव में प्रमादके वश जिनेन्द्र देवके द्वारा बन्धका सद्भाव कहा गया है ॥२२०|| आगे अन्य किन्हों वादियों के अभिमतको प्रकट किया जाता है कितने हो वादी यह मानते हैं कि बाल आदि-बालक, कुमार, युवा और वृद्ध-इनका वध करनेपर अधिकाधिक कर्मका उपक्रम होनेसे क्रमसे अधिक पाप होता है। इसके विपरीत वृद्ध आदि-वृद्ध, युवा, कुमार और बालक-इनका वध करनेपर अतिशय स्तोक कर्मका उपक्रम होनेसे क्रमसे उत्तरोत्तर अल्प पाप होता है ।।२२१।। आगे इस अभिमतका निराकरण करते हैं यह भी-वादोका उपर्युक्त अभिमत भी-युक्तिसंगत नहीं है। कारण इसका यह है कि यहां पापका उपार्जन परिणामके अनुसार कहा गया है। तथा आगममें हिंसाका वर्णन द्रव्यक्षेत्रादिके भेदसे भिन्न-भिन्न रूपमें किया गया है। १. अ प्रतिबंधान्न तत्फलं । २. अ जुत्ति सह जं परि । ३. अ तथा । ४. अ वन्निता।

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