Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 168
________________ १२६ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२०४ यथा वा दीर्घा रज्जुः पर्यन्तदीपिता सती तथाक्रमेणैव दह्यते, कालेन प्रदीर्घेणेति भावः। पुञ्जिता क्षिप्रं शीघ्रमेव दह्यते । विततः पटो वा जलार्दोऽपि शुष्यति । क्षिप्रमिति वर्तते। पिण्डीभूतस्तु कालेन शुष्यति प्रदीर्घेणेति हृदयम्, न च तत्राधिकं जलमिति ॥२०३॥ अत्राह नणु तं न जहोवचियं तहाणुभवओ कयागमाईया । तपाओग्गं चिय तेण तं चियं सज्झरोगु' व्व ॥२०४॥ नन्वेवमपि तत्कर्म । न यथोपचितं तथानुभवतः वर्षशतभोग्यतयोपचितं उपक्रमेणारादेवानुभवतोऽकृतागमादयस्तदवस्था एव । अत्रोत्तरमाह-तत्प्रायोग्यमेवोपक्रमप्रायोग्यमेव तेन तच्चितं बद्धम् । किवदित्याह-साध्यरोगवत् साध्यरोगो हि मासादिवेद्योऽप्यौषधैरपान्तराल एवोपक्रम्यत इति ॥२०४॥ तथा चाह अणवक्कमओ नासइ कालेणोवक्कमेण खिप्पं पि । कालेणेवासज्झो सज्झासझं तहा कम्मं ॥२०५॥ अनुपक्रमतः औषधोपक्रममन्तरेण । नश्यत्यपैति । कालेनात्मीयेनैव । उपक्रमेण क्षिप्रमपि नश्यति । साध्ये रोगे इयं स्थितिः। कालेनैवासाध्य उभयमत्र न संभवति। साध्यासाध्यं तथा कर्म साध्ये उभयम्, असाध्ये एक एव प्रकार इति ॥२०५॥. अथवा जिस प्रकार क्रमसे जलतो हुई लम्बो रस्सी दीर्घ कालमें जल पाती है, पर वही पुंजित ( इकट्टा) कर देनेपर शोघ्र हो भस्म हो जातो है, अथवा जैसे फैलाया गया गोला वस्त्र भी शीघ्र सूख जाता है, पर वही पिण्डाभूत ( इकट्ठा ) होनेपर दीर्घ कालमें सूख पाता है ॥२८३॥ आगे वादोके द्वारा की गयी शंकाको दिखलाकर उसका समाधान किया जाता है यहाँ वादी कहता है कि जीवने जिस प्रकारसे कर्मका संचय नहीं किया है उस प्रकारसे यदि वह उसका अनुभव करता है तो वे अकृताभ्यागम आदि दोष तदवस्थ रहनेवाले हैंउनका निराकरण नहीं किया जा सकता है। इस शंकाके समाधानमें कहा जाता है कि जोवने उसके योग्य-उपक्रमके योग्य ही उसे संचित किया है, जैसे साध्य रोग ॥२०॥ इसे आगे स्पष्ट किया जाता है कर्म उपक्रमके बिना समयानुसार ही विनष्ट होता है, वही उपक्रमके द्वारा शीघ्र भी नष्ट हो जाता है। जैसे-असाध्य रोग समयपर ही नष्ट होता है, किन्तु साध्य रोग समयपर भी नष्ट होता और उससे पूर्व भी। यही स्थिति साध्य व असाध्य कर्मके विषयमें भी जानना चाहिए। विवेचन-अभिप्राय यह है कि कर्मको सौ या दो सौ वर्ष आदि कालमें भोगनेके योग्य जिस अवस्थामें बांधा गया है वह उस रूपमें न नष्ट होकर यदि उसके पूर्व भी उपक्रमके द्वारा नष्ट होता है तो उस अवस्था में पूर्व में दिये गये अकृताभ्यागम आदि दोष तदवस्थ ही रहेंगे। इस शंकाके उत्तर में यहाँ यह कहा गया है कि जिस प्रकार साध्य रोग उपक्रमके बिना समयपर हो नष्ट होता है, किन्तु वह उपक्रमके द्वारा-औषधि आदिके आश्रयसे-समयके पूर्व भी नष्ट होता १. सब्भरोगो। २. अति। ३. अ कालेणेवा सब्भोसभं तहा।

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