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सामान्येन प्राणवधविरतौ शंका-समाधानम्
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यथा नोत्कृष्टक्षयस्तथा चाह
जं नेरइओ कम्मं खवेइ बहुआहि वासकोडीहिं ।
तन्नाणी तिहि गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेण ॥१५९॥ यन्नारकः कर्म क्षपयति बह्वीभिर्वर्षकोटीभिस्तथा दुःखितः सन् क्रियामात्रक्षपणात् तज्ज्ञानी तिसृभिगुप्तिभिगुप्तः क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेण, संवेगादिशुभपरिणामस्य तत्क्षयहेतोस्तीवत्वात् ॥१५९॥ निगमयन्नाह
एएण कारणेणं नेरइयाणं पि पावकम्माणं ।
तह दुक्खियाण वि इहं न तहा बंधो जहा विगमो ॥१६०॥ एतेनानन्तरोदितेन कारणेन नारकाणामपि पापकर्मणां तथा तेन प्रकारेण दुःखितानामपोह विचारे न तथा बन्धो यथा विगमः, प्रायो रौद्रध्यानाभावादिति ॥१६०।।
अह उ तहाभापि हु कुणइ वहंतो न अन्नहा जेण । ता कायव्वो खु तओ नो तप्पडिवक्खबंधाओ ॥१६१।।
उनके उत्कृष्ट क्षय क्यों नहीं होता, इसका कारण आगे बतलाया जाता है
जिस कर्मको नारको जीव बहुत-सी वर्षकोटियों में अनेक करोड वर्षों में क्षीण करता है उसे ज्ञानी जीव तीन गप्तियोंसे सुरक्षित होकर उच्छवास मात्र कालमें ही क्षीण कर देता है। अभिप्राय यह है कि कर्मक्षयका कारण सम्यग्ज्ञानके साथ संवेगादिरूप शुभ परिणाम हैं। उनके होनेपर सम्यग्ज्ञानी जीव जिस क्लिष्ट कर्मका क्षय अल्प समयमें ही कर डालता है उसका क्षय नारको जीव उक्त परिणामोंके बिना असह्य वेदनाका अनुभव करते हुए करोड़ों वर्षों में भी नहीं कर पाते हैं। इसीलिए वादीके द्वारा दिया गया नारकियोंका वह उदाहरण प्रकृतमें लागू नहीं होता ।।१५९॥
इससे निष्कर्ष क्या निकला, इसे आगे प्रकट किया जाता है---
इस कारण पापकर्मसे संयुक्त नारकियोंके तथा दुखी जीवोंके भी यहां-प्रकृत विचारमेंवैसा बन्ध नहीं होता जैसा कि विनाश होता है। अभिप्राय यह है कि जैसे अतिशयित वेदनासे व्यथित नारकियोंके अधिक संक्लेश न होनेके कारण न बन्ध अधिक होता है और न पापकर्मका क्षय भी अधिक होता है वैसे ही दुखी जीवोंके भी वधजनित म की अवस्थामें
अभावमें न बन्ध अधिक होता है और न पापक्षय भी उत्कृष्ट होता है। इसीलिए पापक्षयके उद्देश्यसे दुखी जीवोंका वध करना कभी उचित नहीं ठहरता ॥१६०॥
आगे वादीके द्वारा जो पुनः शंका की जाती है उसका भी समाधान किया जाता है
इसपर वादी कहता है कि जिस कारण वध करता हुआ प्राणी उस प्रकारके भावकोअल्प बन्धके साथ कर्मक्षयकी कारणभूत मूर्खाको-भी करता है, क्योंकि उसके बिना कर्मक्षय सम्भव नहीं है, इसीलिए उस वधको करना ही चाहिए। इसके समाधानमें यह कहा गया है कि वैसा हो नहीं सकता। कारण यह कि वधसे कर्मक्षयके माननेपर उसके प्रतिपक्षभूत अवधसेवध न करनेसे-बन्धका प्रसंग प्राप्त होता है।