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१०२ श्रावकंप्रज्ञप्तिः
[१५७परिणामलक्षणः । समवहतानामिव विजेयः वेदनातिशयेनान्तःकरणव्यापाराभिभवादिति ॥१५६॥ एतदेवाह
इत्थ वि समोहया मूढचेयणा वेयणाणुभवखिन्ना।
तंमित्तचित्तकिरिया न संकिलिस्संति अन्नत्थ ॥१५७।। अत्रापि तिर्यग्लोके । समवहता वेदनासमुद्घातेनावस्थान्तरमुपनीताः। मूढचेतना विशिष्टस्वव्यापाराक्षमचैतन्याः। वेदनानुभवखिन्नाः तीव्रवेदनासंवेदनेन श्रान्ताः । तन्मात्रचित्तक्रिया वेदनानुभवमात्रचित्तव्यापाराः। न संक्लिश्यन्ते न रागादिपरिणाम यान्ति । अन्यत्र स्त्र्यादौ, तन्त्रव निरोधादिति ॥१५७॥
ता तिव्वरागदोसाभावे बंधो वि पयणुओ तेसि ।
सम्मोहओं च्चिय तहा खओ वि णेगंतमुक्कोसो ॥१५८॥ ___ यस्मादेवं तत्तस्मात् । तोवरागद्वेषाभावे बन्धोऽपि प्रतनुस्तेषां समवहतानाम्, निमित्तदौर्बल्यात् । सम्मोहत एव तथा क्षयोऽपि बन्धस्य नैकान्तोत्कृष्टस्तेषां सम्यग्ज्ञानादिविशिष्टतत्कारणाभावादिति ॥१५८॥
संक्लेश नहीं होता है । अतएव पूर्वमें जो यह कहा गया है कि अधम असुरकुमार देवोंके द्वारा अथवा परस्परमें एक दूसरेको दिये गये दुखको सहते हुए नारकियोंके रोद्रध्यानको प्राप्त होनेपर भी बन्धकी अपेक्षा कमकी निर्जरा ही अधिक होतो है, वह युक्तिसंगत नहीं है ॥१५६||
आगे इसे ही पुष्ट किया जाता है
यहांपर-मध्यलोक-में भी वेदनासमुद्घातको प्राप्त होकर अवस्थान्तरको प्राप्त होनेपर जिनको चेतना-अन्तःकरणका व्यापार-किसी कार्यके करने में असमर्थ हो चुका है ऐसे जीव वेदनाके अनुभवसे व्याकुल होकर केवल उसी वेदनाके अनुभवमें अपने चित्तके व्यापारको संलग्न करते हैं, इसोसे अन्यत्र-अन्य विषयोंमें-संक्लेशको प्राप्त नहीं होते हैं ॥१५७।।
इसका क्या परिणाम होता है, इसे आगे स्पष्ट करते हैं___ इसीलिए-तीव्र वेदनाके अनुभवसे–चेतनाके विमूढ़ होनेके कारण-तीन राग-द्वेषके अभावमें उनके मू के निमित्तसे बन्ध भी अतिशय कम होता है तथा उस कमेका क्षय भी सर्वथा उत्कृष्ट नहीं होता।
विवेचन-लाकमें देखा जाता है कि जो प्राणी तोव वेदनासे अभिभूत होते हैं वे मूछित हो जाते हैं, इससे उनका चित्त एकमात्र वेदनाके अनुभवमे संलग्न रहनेके कारण अन्य विषयोंमें राग-द्वेषको प्राप्त नहीं होता। इसीलिए उनके बन्ध जेसे कम होता है वैसे हो निर्जराके कारणभूत विशिष्ट सम्यग्ज्ञानादिके अभावमें कर्मकी निर्जरा भी कम ही होती है। यही बात उन नारकियाके विषयमें भी समझना चाहिए । वे भी वेदनासे अभिभूत होकर जब अन्यत्र राग-द्वेषसे रहित होते हैं तब उनके भी बन्ध और निर्जरा अल्प मात्रामें ही सम्भव है। अतएव वादोका जो यह कहना है कि नारकियोंके जैसे कर्मका बन्ध कम और पापका क्षय अधिक होता है वैस ही दुखो जीवोका वध करनेसे उनके भी बन्ध कम और पापका क्षय अधिक सम्भव है, यह युक्तिसंगत नहीं ॥१५८॥
१. म तम्मत्त । २. अ संकिलेसंति । ३. अ 'अन्नत्थ' नास्ति । ४. अ समोहन । ५. अमुक्षोसो।