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श्रावकप्रज्ञप्तिः
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सव्वपवित्तिअभावो पावइ एवं तु अन्नदाणे वि ।
तत्तो विसूइयाई न संभवंतित्थ किं दोसा ॥१७१॥ सर्वप्रवृत्त्यभावःप्राप्नोत्येवमागन्तुकदोषसंभवात् । एवं च सत्यन्नदानेऽपि न प्रतितव्यम् । अपि-शब्दाददानेऽपि । ततोऽन्नदानादेविसूचिकादयो विसूचिका मरणम् अदाने प्रद्वेषतो धनहरणव्यापावनादयो न सम्भवन्त्यत्रान्नदानादौ कि दोषाः ? संभवन्त्येवेति ॥१७१॥ तथा
सयमवि य अपरिभोगो एत्तो च्चिय एवं गमणमाई वि ।
सव्वं न जुज्जइ च्चिय दोसासंकानिवित्तीओ ॥१७२।। स्वयमपि चापरिभोगोऽन्नादेः। अत एवागन्तुकदोषसंभवादेव । एवं गमनाद्यपि गमन. मागमनमवस्थानम् । सर्व न युज्यते एव दोषाशंकानिवृत्तेः गच्छतोऽपि कण्टकवेधादिसंभवादागच्छतोऽपि अवस्थानेऽपि गृहपातादिसंभवदर्शनादिति ॥१७२॥
इस प्रकार-आगन्तुक दोषको सम्भावनासे-समस्त प्रवृत्तिके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। वैसी अवस्थामें आहारके देने में भी क्या उससे विसूचिका आदि दोषोंकी सम्भावना नहीं होती है ? उनकी सम्भावना भी बनी रहती है।
- विवेचन-जैसीकी वादोकी मान्यता है तदनुसार तो किसी भी कार्यका करना सम्भव न होगा, क्योंकि प्रयोजनके वश जो भी जिस कार्यको करना चाहेगा उसमें किसी न किसी आगन्तुक दोषकी सम्भावना बनी ही रहनेवाली है। उदाहरणार्थ यदि कोई किसी साधुको आहार देना चाहता है तो उसमें भी विसूचिका (अजीर्ण विशेष) रोग आदि आगन्तुक दोषको सम्भावना बनी रहती है। कारण यह कि किन्हीं प्राणियोंके उस भोजनसे अजीर्ण आदि रोग उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं। इस आगन्तुक दोषको सम्भावनासे यदि कोई उसे नहीं देना चाहे तो उसमें भो भोजनके प्राप्त न होनेसे उसके अभिलाषोके द्वारा धनके अपहरण व प्राणघात आदिकी सम्भावना बनी रहती है। यदि कोई प्रयोजनवश रेल अथवा बस आदिके द्वारा बाहर जाना चाहे तो उसमें अपघात आदिके होनेकी शंका रह सकती है। इस प्रकार आगन्तुक दोषके भयसे कोई किसी भी कार्यमें प्रवृत्त नहीं हो सकेगा। परिणाम यह होगा कि इस प्रकारसे तो समस्त लोकव्यवहार भी ठप्प हो जायेगा ॥१७१।।
उस आगन्तुक दोषको शंकासे स्वयंको भी दुर्गति हो सकती है, यह आगे दिखलाते हैं
उक्त आगन्तुक दोषके भयसे भोजन आदिका उपभोग स्वयं भी नहीं किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त उसके भयसे गमन आदि-कहीं अन्यत्र जाना, आना व अवस्थित रहना आदिसभी कुछ करनेके अयोग्य ठहरेंगे, क्योंकि उन सभीमें दोषकी शंका दूर नहीं हो सकती है। जैसे-जाने-आनेमें काटे आदिके द्वारा वेधे जाने व स्थित रहनेमें घरके गिर जानेका भयः इत्यादि रूपसे सर्वत्र भय बना रहनेवाला है ।।१७२।।
१. भ अदाने पि प्रद्वेषतो। २. विसूचिकाका लक्षण
सूचीभिरिव गात्राणि तुदन् संतिष्ठतेऽनिलः । यस्याजीर्णेन सा वद्यर्विसूचीति निगद्यते ॥