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श्रीवकप्रज्ञप्तिः
[५२आह-तदेवेह कस्मान्नोक्तमिति । उच्यते-ओपेन सामान्येन तदपि दशप्रकारममीषां भेदानां क्षायोपशमिकादीनामभिन्नरूपमेव, एतेषामेव केनचिद्भवेन भेदात्। संक्षेपारम्भश्चायम्, अतोन तेषामभिधानमिति ॥५२॥ सम्भव उक्त क्षायोपशमिकादि भेदोंमें से किसी-किसीके अन्तर्गत हो सकते हैं। प्रकृत ग्रन्थके संक्षिप्त होने के कारण उन दस भेदोंका निरूपण यहां नहीं किया गया है। वे दस भेद ये हैं-निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपरुचि और धर्मरुचि । इनका स्वरूप क्रमशः इस प्रकार है-(१) जो परमार्थ स्वरूपसे जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पापा, आस्रव और संवरके विषयमें आत्मसम्मतमतिसे--परोपदेश निरपेक्ष जातिस्मरणादिरूप प्रतिभासे--रुचि या श्रद्धा करता है वह निसर्गदर्शन आर्य कहलाता है। प्रकारान्तरसे भी इसके लक्षणमें यह कहा गया है कि जो जिनदष्ट चार प्रकारके पदार्थों के वि. इसी प्रकारका है, अन्यथा नहीं है' ऐसा श्रद्धान करता है उसे निसर्गरुचि दर्शन आर्य जानना चाहिए। यह लक्षण प्रज्ञापना व उत्तराध्ययनके अनुसार निर्दिष्ट किया गया है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (१-३ ) में निसर्गसम्यग्दर्शनके स्वरूपको दिखलाते हुए कहा गया है कि जोव स्वकृत कर्मके वश अनादिकालसे चतुर्गतिस्वरूप संसारमें परिभ्रमण करता हुआ अनेक प्रकारसे पुण्यपापके फलका अनुभव कर रहा है, ज्ञान-दर्शनोपयोगरूप स्वभाववाले उसके उन-उन परिणामाध्यवसायस्थानान्तरोंको प्राप्त होते हुए अनादि मिथ्यादृष्टि होनेपर भी परिणामविशेषसे उस प्रकारका अपूवकरण हाता है कि जिससे बिना किसी प्रकारके उपदेशके सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, उसके इस सम्यग्दर्शनका नाम ही निसर्गसम्यग्दर्शन है। तत्त्वार्थवार्तिक ( १, ३, ८) में कहा गया है कि जिस प्रकार कुरुक्षेत्रमें कहीं पर बाह्य पुरुषप्रयत्नके बिना ही सुवर्ण उत्पन्न होता है उसी प्रकार बाह्य पुरुषके उपदेशपूर्वक जो जीवादि पदार्थोंका अधिगम होता है उसके विना ही जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे निसगंजसम्यग्दर्शन कहते हैं। (२) अन्य किसी छद्मस्थ या जिनके द्वारा उपदिष्ट जीव-अजीवादि पदार्थों का जो श्रदान करता है उसे उपदेशरुचि जानना चाहिए। तत्त्वार्थवार्तिक ( ३-३६ ) के अनुसार तीर्थंकर और बलदेव आदिके चरितके उपदेशके आश्रयसे जिनके तत्त्वश्रद्धा उत्पन्न होती है उन्हें उपदेशरुचि दर्शनआर्य कहा जाता है। (३) जिसका राग, द्वेष, मोह व अज्ञान हट चुका है तथा जिसके जिनवाणीके आश्रयसे तत्त्वविषयक रुचि प्रादर्भत हई है उसका नाम आज्ञारुचि है। (४) जो सत्रका अध्ययन करता हआ अंगश्रतसे अथवा बाह्यश्रुतसे सम्यक्त्वका अवगाहन करता है उसे सूत्ररुचि जानना चाहिए । (५) एक पदके आश्रयसे जिसका सम्यक्त्व-तत्त्वरुचि-पानीमें डाले गये एक तेलबिन्दुके समान अनेक पदोंमें फैलती है उसे बीजरुचि कहा जाता है। (६) जिसने अर्थस्वरूपसे ग्यारह अंग, प्रकीर्णक और दृष्टिवादरूप श्रुतज्ञानको देख लिया है-अभ्यस्त कर लिया है-उसे अभिगमरुचि कहते हैं। (७) अंग-पूर्व श्रुतके विषयभूत जीवादि पदार्थ विषयक प्रमाण-नयादिके आश्रयसे विस्तारपूर्वक किये जानेवाले निरूपणसे जिन्हें श्रद्धान प्राप्त हुआ है वे विस्ताररुचि दर्शन आर्य कहलाते हैं (त. वा. ३, ३६.२)110) दर्शनविनय. ज्ञानविनय, चारित्रविनय और तपविनयके विषयमें तथा समिति व गुप्तियोंके विषयों जो अन्तःकरणपूर्वक अनुष्ठानविषयक रुचि होती है उसका नाम क्रियारुचि है। (९) अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टिको संक्षेपरुचि जानना चाहिए। वह प्रवचन में विशारद ( कुशल ) न होकर शेष मिथ्यामतोंके विषयमें अनभिग्रहीत होता है-उनके आश्रयसे मिथ्यात्वको नहीं ग्रहण करता है। (१०) जो जिनप्रणीत श्रुतधर्म, अस्तिकायधर्म, और चारित्रधर्मका श्रद्धान करता है उसे धमरुचि जानना चाहिए ॥५२॥