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सम्यक्त्वविषयभूतस्य जीवतत्त्वस्य प्ररूपणा द्वैविध्यमाह
संसारिणो य मुत्ता संसारी छबिहा समासेण ।
पुढवीकाइअमादि तसकायंता पुढोभेया ॥६४॥ च-शब्दस्य व्यवहित उपन्यासः-संसारिणो मुक्ताश्चेति । तत्र संसारिणः षविधाः षदप्रकाराः। समासेन जातिसंक्षेपेणेति भावः। षड्विधत्वमेवाह-पृथिवीकायिकादयस्त्रसकायान्ताः। यथोक्तम्-पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया पृथग्भेवा इति स्वातन्त्र्येण पृथग्भिन्नस्वरूपाः, न तु परमपुरुषविकारा इति ॥६४॥
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये वे तत्त्वार्थ हैं। इनमें जीव दो प्रकारके कहे गये हैं। इनका स्वरूप आगे कहा जानेवाला है ।।६३।।
आगे वे दो प्रकारके जीव कौनसे हैं, इसका निर्देश किया जाता है
जीव दो प्रकारके हैं-संसारी और मुक्त। इनमें संसारी जीव संक्षेपमें पृथिवीकायिकको आदि लेकर त्रसकाय पर्यन्त पृथक्-पृथक् भेदवाले छह प्रकारके हैं।
विवेचन-यहां जीवोंके सामान्यसे दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-संसारी और मुक्त । जन्म और मरणका नाम संसार है। जो जीव निरन्तर जन्म और मरणको प्राप्त होते हुए तिर्यंच, मनुष्य, नारक और देव भवोंका अनुभव किया करते हैं उन्हें संसारी कहा जाता है। इसके विपरोत जो जीव समस्त ज्ञानावरणादि कर्मोंसे रहित होकर उस जन्म-मरणरूप संसारसे मक्त हो चुके हैं वे मुक्त-सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं। उनमें यहां जातिको अपेक्षा संसारी जीवोंके छह भेद कहे गये हैं-पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक । इस प्रकारसे यहां सामान्यसे संसारी जीवोंके छह भेदोंका निर्देश करके उनमें स्थावर जीव कौन हैं और त्रस कोन हैं, इसे स्पष्ट नहीं किया गया। उनके विषयमें कुछ मतभेद रहा है। यथा--तत्त्वार्थभाष्यसम्मत सूत्रपाठके अनुसार जहाँ तत्त्वार्थसूत्र ( २, १३-१४ )में पृथिवा, अम्बु और वनस्पति इनको स्थावर तथा तेज, वायु और द्वीन्द्रिय आदि जीवोंको इस कहा गया है वहां उसी तत्त्वार्थसूत्र (२, १३-१४ ) में सर्वार्थसिद्धिसम्मत सूत्रपाठके अनुसार पृथिवी, अप, तेज, वायु और वनस्पति इनको स्थावर तथा द्वीन्द्रिय आदि जोवोंको त्रस कहा गया है। प्रकृत तत्त्वार्थसूत्र व उसके भाष्यमें उन दोनोंके स्वरूपका कोई निर्देश नहीं किया गया है। सर्वार्थसिद्धि ( २, १३-१४ ) में त्रस व स्थावर जीवोंके स्वरूपका निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि जो जीव त्रस नामकर्मके वशीभूत हैं वे त्रस और जो स्थावर नामकर्मके वशीभूत हैं वे स्थावर कहलाते हैं । इन नामकर्मोंके भी स्वरूपको दिखलाते हुए यही कहा गया है कि जिसके उदयसे द्वीन्द्रिय आदि जीवोंमें जन्म होता है उसे त्रस नामकर्म और जिसके उदयसे एकेन्द्रिय जीवोंमें जन्म होता है उसे स्थावर नामकर्म कहा जाता है। लगभग यही अभिप्राय तत्वार्थवातिककारका भी रहा है ( २, १२, १ व ३ तथा ८, ११, २१-२२)। इन दोनों ग्रन्थोंमें इस मान्यताका निषेध किया गया है कि जो जीव चलते हैं वे त्रस और जो स्थानशील-गमनक्रियासे रहित-होते हैं वे स्थावर कहलाते हैं। इसका कारण वहां आगमका विरोध बतलाया गया है । इसे स्पष्ट करते हुए वहां यह कहा गया है कि आगममें कायमार्गणाके द्वीन्द्रियसे लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त त्रस जीवोंका अस्तित्व कहा गया है। तत्त्वार्थवार्तिक ( २, १२, २-१) में
१. भ तथोक्तं ।