________________
[७७ -
५४
श्रावकप्रज्ञप्तिः तद्विरहेण, श्रूयते च बाह्यप्रत्ययवृषभादिसव्यपेक्षा करकंड़वादीनां प्रत्येकबुद्धानां बोधिरिति । उपधिस्तु स्वयंबुद्धानां द्वादशविधः पात्रादिः, प्रत्येकबुद्धानां तु नवविधः प्रावरणवजः। स्वयंबुद्धानां पूर्वाधोतश्रु तेऽनियमः, प्रत्येकबुद्धानां नियमतो भवत्येव । लिङ्गप्रतिपत्तिः स्वयंबुद्धानामाचार्यसन्निधावपि भवति, प्रत्येकबुद्धानां तु देवता प्रयच्छतीत्यलं विस्तरेण । बुद्धबोधिता इति बुद्धबोधितसिद्धाः, बुद्धा आचार्यास्तैर्बोधिताः सन्तो ये सिद्धास्ते इह गृह्यन्ते । स्वान्य-गृहिलिङ्गा इति स्वलिङ्गसिद्धा अन्यलिङ्गसिद्धा गृहिलिङ्गसिद्धाः। तत्र स्वलिङ्गसिद्धा द्रव्यलिङ्गं प्रति रजोहरण-गोच्छकधारिणः। अन्यलिङ्गसिद्धाः परिवाजकादिलिङ्गसिद्धाः। गृहिलिङ्गसिद्धा मरुदेवीप्रभृतय इति ॥७६॥
इत्थीपुरिसनपुंसग एगाणेग तह समयभिन्ना य ।
एसो जीवसमासो इतो इयरं पवक्खामि ॥७७।। एते च सर्वेऽपि केचित् स्त्रीलिङ्गसिद्धाः केचित् पुंलिङ्गसिद्धाः केचिन्नपुंसकलिङ्गसिद्धाः। आह-कि तीर्थकरा अपि स्त्रीलिङ्गसिद्धा भवन्ति ? भवन्तोत्याह-यत उक्तं सिद्धप्राभूतेसव्वत्थोवा तित्यगरिसिद्धा, तित्थगरितित्थे नोतित्थसिद्धा असङ्घयेयगुणा, तित्थगरितित्थे णोतित्थगरिसिद्धाउ असङ्खचेयगुणाउ तित्थगरितित्थे णोतित्थगरसिद्धा असङ्खयेयगुणा इति । न समाधानमें कहा गया है कि उन दोनों में बोधि, उपाधि, श्रत और लिंग जनित विशेषता होती है। जैसे-स्वयंबुद्ध जहां बाह्य निमित्तके बिना ही प्रबोधको प्राप्त होते हैं वहां प्रत्येकबुद्ध बिना बाह्य निमित्तके प्रबुद्ध नहीं होते, करकण्डु आदि प्रत्येकबुद्धोंके बोधिकी प्राप्ति बाह्य निमित्तभूत वृषभ आदिको अपेक्षासे सुनी भो जाती है। उपधि जहां स्वयंबुद्धोंके पात्र आदि बारह प्रकारको होती है वहाँ प्रत्येकबुद्धोंके वह प्रावरणको छोड़कर नो प्रकारकी होती है। स्वयंबुद्धोंके पूर्व अधीत श्रुतके विषयमें कुछ नियम नहीं है, प्रत्येकबुद्धोंके वह नियमसे होता हो है । स्वयंबुद्धोंके लिंगकी प्रतिपत्ति आचार्यके समीपमें भी होती है, पर प्रत्येक बुद्धोंके लिए उसे देवता प्रदान करती है। इस प्रकार उन दोनोंमें भेद है हो। (७) बुद्धबोधितसिद्ध-जो बुद्धों (आचार्यों ) से प्रबोधको प्राप्त होते हुए मक्तिको प्राप्त हए हैं उन्हें बद्धबोधितसिद्ध कहा जाता है। (८) स्वलिंगसिद्ध-जो द्रव्यलिंग अपेक्षा रजोहरण और गोच्छक ( पात्र पोछनेका वस्त्रखण्ड) को धारण करते हुए मुक्त हुए हैं उन्हें स्वलिंगसिद्ध जानना चाहिए। (९) अन्यलिंगसिद्ध-जो परिव्राजक आदि अन्य साधुओंके वेषको धारण करते हुए सिद्धिको प्राप्त हुए हैं वे अन्यलिंगसिद्ध कहलाते हैं। (१०) जो गृहस्थके वेषमें मुक्त हुए हैं उन्हें गृहिलिंगसिद्ध कहा जाता है - जैसे मरुदेवो आदि ॥७६।।
आगे उपर्युक्त सभी मुक्त जीवोंको कुछ अन्य भी विशेषताओंको प्रकट किया जाता है
उनमें कुछ स्त्रीलिंगसिद्ध, पुरुषलिंगसिद्ध व नपुंसकलिंगसिद्ध, कुछ एकसिद्ध व अनेकसिद्ध तथा समय भिन्न - कुछ प्रथमसमयसिद्ध व अप्रथमसमयसिद्ध; इस प्रकारसे भी उनमें भेद है। इस प्रकार जीवोंका यह संक्षेप है। आगे अजीव समासको कहता हूँ।
विवेचन-इन सब मुक्त जीवोंमें कुछ स्त्रीलिंगसे सिद्ध हुए हैं, कुछ पुल्लिगसे सिद्ध हुए हैं और कुछ नपुंसकलिंगसे सिद्ध हुए हैं। यहां शंका की जा सकता है कि तीर्थकर भी क्या स्त्रीलिंगसे सिंद्ध होते हैं ? इसके उत्तरमें कहा जाता है कि हाँ, तीर्थकर भी स्त्रीलिंगसे सिद्ध होते हैं। कारण यह कि सिद्धप्राभृत में सिद्धोंके अल्पबहुत्वके प्रसंगमें ऐसा कहा गया है-तीर्थकरोसिद्ध सबसे १. असो एत्तो इयं प । २. अ केचिन्नपुंसगसिद्धा ग्रहिलिंगसिद्धा इत्याह किं । ३. अ असंखेज्जगुगा।