________________
श्रावकप्रज्ञप्तिः चिट्ठउ ता इह अन्नं तक्खवणे तस्स को गुणो होइ ।
कम्मक्खउ त्ति तं तुह किंकारणगं विणिदिटुं ॥१४॥ तिष्ठतु तावदिह प्रक्रमेऽन्यद्वक्तव्यम् । तत्क्षपणे दुःखितसत्त्वकर्मक्षपणे तस्य क्षेपयितुदुःखितसत्त्वव्यापादकस्य । को गुणो भवति, न हि फलमनपेक्ष्य प्रवर्तते प्रेक्षावानिति । अथैवं मन्यसे कर्मक्षय इति कर्मक्षयो गुण इत्याशङ्कयाह-तत्कर्म तव हे वादिन् किंकारणं किंनिमित्तं निर्दिष्टं प्रतिपादितं शास्त्र इति ॥१४०॥
अन्नाणकारणं जइ तदवगमा चेव अवगमो तस्स ।
किं वहकिरियाए तओ विवज्जओ तीइ अह हेऊ ॥१४१।। अज्ञानकारणं अज्ञाननिमित्तं यदि, एतदाशङ्कयाह-तदपगमादेवाज्ञाननिवृत्तेरेवापगमस्तस्य निवृत्तिस्तस्य कर्मणः, कारणाभावात् कार्याभाव इति न्यायात् । किं वधक्रियया, ततः अप्रतिपक्षत्वातस्या विपर्ययः तस्या वधक्रियायाः अथ हेतुरवधक्रियैवेति ॥१४१॥ एतदाशङ्कयाह
मुत्ताण कम्मबंधो पावइ एवं निरत्थगा मुत्ती ।
अह तस्स पुन्नबंधो तओ वि न अंतरायाओ॥१४२॥ मुक्तानां कर्मबन्धः प्राप्नोति, तस्यावधक्रियानिमित्तत्वात् मुक्तानां चावधक्रियोपेतत्वात्, एवं निरर्थका मुक्तिबन्धोपद्रुतत्वात् । अथैवं मन्यसे-तस्य दुःखितसत्त्वव्यापादकस्य । पुण्यबन्धो गुणो न तु कर्मक्षय इत्येतदाशङ्कयाह-तकोऽपि न असावपि गुणो नान्तरायाकारणादिति ॥१४२॥
इस प्रसंगमें अन्य कथन तो रहे, हम वादोसे पूछते हैं कि उन दुखी जीवोंके कर्मक्षयमें उनका वध करके कर्मक्षय करानेवाले को क्या लाभ है ? इसके उत्तरमें यदि कहा जाये कि उसको उसके कर्मके क्षयका होना ही लाभ है तो इसपर पुनः प्रश्न किया जाता है कि तुम्हारे मतानुसार उस कर्मका कारण आगममें क्या निर्दिष्ट किया गया है जिसका क्षय अभीष्ट है ॥१४०॥
आगे इसी प्रसंगमें और भी उत्तर-प्रत्युत्तरका क्रम चल रहा है
इसपर वादी कहता है कि उस कर्मका कारण अज्ञान है। इसके उत्तरमें वादीसे कहा जाता है कि तब तो उस अज्ञानके विनाशसे ही उस कर्मका क्षय हो सकता है, अर्थात् कारणके अभावसे कार्यका अभाव होता है, ऐसा जब न्याय है तब तदनुसार कारणभूत उस अज्ञानके दूर करनेसे ही कार्यभूत कर्मका विनाश सम्भव है। ऐसी स्थितिमें उन दुखी जीवोंका वध करनेसे क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है ? उससे वधकको कुछ भी लाभ होनेवाला नहीं है। इसपर वादी कहता है कि उस वक्रियाका विपर्यय-उन दुखी जीवोंका वध न करना-ही उस कर्मबन्धका कारण है ॥१४१॥
आगे वादीके द्वारा निर्दिष्ट उस कर्मबन्धको कारणभूत अवध क्रियामें दोष दिखलाते हैं
यदि वादी अवध क्रियाको कर्मबन्धका कारण मानता है तो वैसी अवस्थामें मुक्त जीवोंके कर्मबन्धका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होनेवाला है, क्योंकि उनके द्वारा किसी भी प्राणीका वध नहीं किया जाता है । तब ऐसी स्थितिमें मुक्ति निरर्थक हो जावेगी। इसका परिहार करते हुए वादी कहता है कि उस वधकके उन दुखी जीवोंके वधसे पुण्यका बन्ध होता है। इसका भी निरसन १. म ते । २ अक्षपयितुं दुःखित । ३. म किरियाह । ४. अ वषः क्रियायाः इति हेतु। ५. म णो। . .