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सम्यक्त्वातिचारप्ररूपणा
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तथा चाह
नो खलु अप्परिवडिए निच्छयओ मइलिए व समत्ते ।
होइ तओ परिणामो जत्तो णुववूहणाईया ॥१५॥ न खल्विति नैव । अप्रतिपतितेऽनपगते। निश्चयतो निश्चयनयमतेन मलिनीकृते वा व्यवहारनयमतेन । सम्यक्त्वे उक्तलक्षणे भवति तकः परिणामो जायते भावात्मस्वभावः यतो यस्मात्परिणामादनुपबृंहणादयो भवन्तीति । उक्ताः सम्यक्त्वातिचाराः। एते मुमुक्षुणा वजनीयाः ॥९५॥ किमिति
जं साइयारमेयं खिप्पं नो मुक्खसाहगं भणिों ।
तम्हा मुक्खट्ठी खलु वज्जिज्ज इमे अईयारे ॥९६॥ यद्यस्मात् । सातिचारं सदोषमेतत्सम्यक्त्वं क्षिप्रं शीघ्रम् । न मोक्षसाधकं नापवर्गनिर्वतकम् । भणितं तीर्थकरगणधरैः, निरतिचारस्यैव विशिष्टकर्मक्षयहेतुत्वात् । तस्मात् मोक्षार्थी अपवर्गार्थो खल्विति खलुशब्दोऽवधारणे मोक्षायेंव। वर्जयेन्न कुर्यादेतानति चारान् शङ्कादीनिति ॥ ॥९६॥
आह सुहे परिणामे पइसमयं कम्मखवणओ कह णु । होइ तह संकिलेसो जत्तो एए अईयारा ॥९७।।
आगे इसीको स्पष्ट किया जाता है
निश्चयसे उस सम्यक्त्वके पतित न होनेपर-तदवस्थ रहते हुए-अथवा अमलिनितदूषित न होनेपर-वह परिणाम नहीं होता है जिसके कि आश्रयसे उक्त अनुपबृहण आदि अचिचार हुआ करते हैं।
विवेचन-प्रकृत गाथाको व्याख्यामें यह कहा गया है कि निश्चय नयको अपेक्षा यदि वह सम्यक्त्व पतित नहीं होता है अथवा व्यवहार नयके मतसे यदि वह मलिन किया जाता है तो उस प्रकारका आत्मपरिणाम ही नहीं उत्पन्न होता कि जिससे उपयुक्त अनुपबृहणादि अतिचार सम्भव हो सकें। गाथामें 'निच्छयओ मइलिए' इस पाठमें ग्रन्थकारको सम्भवतः 'अमलिए (ऽमलिए )' ऐसा पाठ अभीष्ट रहा है, ऐसा हमें प्रतीत होता है। तदनुसार उसका यह अभिप्राय निकलता है कि उपर्युक्त अनुपबृहण आदिके आश्रयसे या तो वह सम्यक्त्व पतित हो जाता है या फिर मलिनित होता है, इसीलिए उन्हें भी उस सम्यक्त्वके अतिचार सममना चाहिए ॥१५॥
आगे इन अतिचारोंके छोड़ देनेके लिए प्रेरणा की जाती है
अतिचार सहित यह सम्यक्त्व चूंकि शीघ्र ही मोक्षका साधक नहीं ऐसा तीर्थंकर एवं गणधर आदिके द्वारा कहा गया है, इसीलिए मोक्षके अभिलाषी भव्य जीवको इन अतिचारोंका परित्याग करना चाहिए ॥१६॥
यहाँ शंकाकार कहता है कि शुभ परिणामके होनेपर जब प्रतिसमय कर्मका क्षय होता है तब भला वैसा संक्लेश कैसे हो सकता है कि जिससे ये अतिचार सम्भव हो सकें।
१. अ मोक्ख । २. अ मोक्खट्टी।